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________________ "शील की नव बाड़ - छद्मवेषा मागधिका साधु के स्थान में जा उसकी परिचर्या करने लगी। उसने साधु के वस्त्रों एवं शरीर को धोकर साफ किया। साधु की वेहोशी को मिटाने के लिए वह उसके अंग-प्रत्यङ्ग को मसलने लगी। साधु को होश हुआ तब अपने समीप एक नारी को बैठी हुई देख कर वह बोला-"तुम यहाँ किस लिए बैठी हो ?" वेश्या ने कहास्वामी ! आप मूच्छित अवस्था में पड़े हुए थे। आपका शरीर और वस्त्र मल-मूत्र से भर गया था। ऐसी अवस्था में आपकी सेवा करना मेरा कर्तव्य था। यही सोचकर मैंने आपके वस्त्रों एवं शरीर को साफ कर दिया और आपकी वेहोशी को मिटाने के लिए हाथ और पैर मसलने लगी। अब आपको होश हुआ है आप मुझसे किसी भी प्रकार का संकोच न करें। आप तो महापुरुष हैं, मैं आपकी सेवा से घृणा कैसे कर सकती हूँ ? आप जब तक स्वस्थ न हो जाय तब तक आपकी सेवा करना चाहती हूँ। अपनी सेवा से मुझे वंचित न रखें।” इस प्रकार मागधिका ने मधुर वचनों एवं हावभाव से कुलवालुडा साधु के चित्त को मोह लिया। वेश्या के संग से साधु भ्रष्ट हो गया। उसने अपने हाव-भावों से कुलबालुडा को अपने वश में कर लिया। कुलबालुडा अपने तप से भ्रष्ट होकर मागधिका वेश्या से भोग भोगने लगा। एक दिन वेश्या ने कहा-"अब आपको कमा कर लाना चाहिए। तब उसने ज्योतिषी का धंधा शुरू कर __ ज्योतिषी कुलबालुडा एक दिन कोणिक राजा के पास गया। कोणिक ने उसे पूछा-“वताओ कौन-सा उपाय करने से विशाला नगरी मेरे अधीन हो सकती है ?",तब उसने निमित्त शास्त्र से बताया कि विशाला नगरी में जो स्तंभ गडां है, वह अच्छे मुहूर्त में गड़ा है। अगर उस स्तंभ को उखाड़ दिया जाय तो नगरी तुम्हारे अधीन हो सकती है। कुलबालडा विशाला नगरी में घूमता हुआ लोगों से यह कहने लगा कि इस स्तम्भ का अब समय हो गया है। इसको उखाड़ देने से नगर का संकट दूर हो सकता है। लोगों ने उसपर विश्वास कर लिया और स्तंभ को उखाड़ना शुरू कर दिया। उसने कोणिक से कह दिया कि जब ये लोग स्तभ को उखाड़ने लगें तब अपनी सेना को वहां से हटाकर दर ले जाना और बाद में अचानक हमला बोल देना। कोणिक ने ऐसा ही किया। विशाला नगर-वासियों को यह विश्वास हो गया कि स्तंभ को मूल से उखाड़ देने से कोणिक की सेना हट गई। समय पाकर कोणिक ने पुनः हमला बोल दिया और विशाला नगरी का पतन हो गया। कोणिक ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार विशाला नगरी में गदहे से हल चलाया। व्रत की आराधना कर चेटक देवलोक गया। हल-विहल कुमारों ने दीक्षा ले ली। हाथी अग्नि-कुण्ड में पड़कर मर गया और कुलबालुडा मर कर नरक में गया। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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