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________________ शील की नव बाड़ कथा-४... चूल्हे का दृष्टान्त ' (मनुष्य-जन्म की दुर्लभता पर पहला दृष्टान्त) [ इसका सम्बन्ध दाल १ दोहा ७ ( पृ० ४) के साथ है ] दक्षिण भारत के मध्य समृद्धिशाली नगर कपिलपुर के राजा ब्रह्म अपनी प्रजावत्सलता के लिए सुविख्यात थे। उनके मंत्रियों में सर्वगुणसम्पन्न धनु को अपने विलक्षण बुद्धि के कारण सर्वप्रथम स्थान प्राप्त था। मधुर वचन, अनुपम कला एवं स्वर्गीय सौन्दर्य की अधिष्ठातृ रानी चूलणी राजा के विशिष्ट प्रेम की पात्री थी। काशी, गजपुर, कौशल एवं चम्पा के नरेश राजा के अभिन्न मित्रों में थे। राजा ब्रह्म और रानी चूलणी का दाम्पत्य जीवन सुखमय था। ऐसे सुखमय अवसर पर उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम ब्रह्मदत्त रखा गया। सौभाग्य या दुर्भाग्य से ब्रह्मदत्त पांच वर्ष का ही होने पाया था कि उसके पिता काल-धर्म को प्राप्त हुए। राजा ब्रह्म की अन्त्येष्ठिक्रिया के अवसर पर उनके चारों अभिन्न स्नेही उपस्थित थे। सब के सामने यह विकट समस्या थी कि राज्य का संचालन किस प्रकार किया जाये। पंचवर्षीय शिशु ब्रह्मदत्त का राज्याभिषेक किया गया और दिवंगत आत्मा के हितचिन्तकों के विचार से कौशल नरेश दीर्घ को अभिभावकस्वरूप राज्यकी सुरक्षा-व्यवस्था का दायित्व सौंपा गया। कालक्रम में राजा दीर्घ और रानी में अनुचित सम्बन्ध हो गया। इधर कुमार ब्रह्मदत्त में भी कर्त्तव्याकर्त्तव्य के ज्ञान का पूर्णतः विकास हो चुका था। वह रानी चूलणी और दीर्घ के सम्बन्ध से सुपरिचित हो चुका था और एक दिन उसने संकेत द्वारा परोक्ष रूप में दीर्ध को भी अपनी जानकारी की सूचना दे दी। कुमार के इस ज्ञान से दोनों अत्यन्त ही आतंकित हुए। सुख में बाधा समझ कर रानी ने कुमार की हत्या का पडयंत्र किया। इस पडयंत्र का पता वयोवृद्ध मंत्री धनु को मिल गया एवं कुमार के रक्षार्थ उसने अपने पुत्र वरधनु को साथ कर दिया। वरधनु की सहायता से कुमार का बाल भी बांका नहीं होने पाया और पडयंत्र की जाल से मुक्त होकर वह अन्यत्र निकल पड़ा। इसी बीच कुमार ब्रह्मदत्त और मंत्रीपुत्र वरधनु का साथ छूट गया। जंगलों एवं कन्दराओं की ठोकरें खाते-खाते कुमार ब्रह्मदत्त की अवस्था विपन्न हो चली थी। अन्न-जल के अभाव में उसका युवा शरीर कृशित होने लगा। ऐसी कारुणिक अवस्था में वह एक ग्राम में पहुंचा, जहां के वृद्ध ब्राह्मण ने उसकी काफी आवभगत की। ब्राह्मण के स्वागत-सत्कार से प्रसन्न होकर ब्रह्मदत्त ने उसे अपनी राजधानी में आने का आमंत्रण दिया। कालान्तर में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सम्राट् बना। . राजगद्दी पर आसीन होने की खुशी में चक्रवती सम्राट् की राजधानी में हर्पोत्सव मनाया जा रहा था, ऐसी शुभ बेला में वह ब्राह्मण वहाँ पहुँचा। चक्रवती ने प्रसन्न होकर उसे मुंहमांगा पारितोषिक देने का बचन दिया। किन्तु, उस भाग्यहीन ब्राह्मण ने अपनी पत्नी के परामर्श पर यह क्षुद्र याचना की कि राजा के साम्राज्य में जितने भी परिवार हैं, सबों के यहाँ क्रमानुसार उसे कुटुम्ब सहित भोजन और एक स्वर्ण-मुद्रा प्राप्त हो। चक्रवती ने उसे कई वार समझाया लेकिन वह अपनी मांग पर अटल रहा। अन्त में राजा ने कहा-"एवमस्तु ।" दिन पर दिन जैसे बीतते गये ब्राह्मण को निम्नकोटि का भोजन मिलता गया। उस ब्राह्मण के पास पश्चात्ताप के सिवा अन्य कोई विकल्प नहीं रह गया। जिस प्रकार क्रमानुसार सब परिवारों के पश्चात् चक्रवती का क्रम आना कठिन है, उसी प्रकार मनुस्य-जन्म पाकर उसका सदुपयोग नहीं करनेवाले को जन्म जन्मान्तर तक पश्चाताप ही करना पड़ता है। पुनः मनुष्य जन्म की प्राप्ति सुलभ नहीं होती। संयोगवश, चक्रवती के चूल्हे का प्रसाद प्राप्त हो सकता है, उनके यहां भोजन की वारी भी आ सकती है लेकिन सांसारिक सुख प्राप्ति की लालसा में लिप्त मनुष्य को पुनः यह मानव-शरीर प्राप्त करना दुर्लभ ही रह जाता है। १-उत्तराध्ययन सत्र अ० गा०१की नैनिचन्द्रिय टीकाके आधार पर। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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