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________________ ७४ शील की नव बाड़ सारथी के मुख से इस हिंसापूर्ण प्रयोजन की बात सुन कर जीवों के प्रति दयावृत्ति-अनुकम्पा रखने वाले महामना अरिष्टनेमि सोचने लगे: "यदि मेरे ही कारण से ये सब पशु मारे जांय तो यह मेरे लिए इस लोक या परलोक में कल्याणकारी नहीं हो सकता।" __ यह विचार कर यशस्वी अरिष्टनेमि ने अपने कान के कुण्डल, कण्ठ-सूत्र और सर्व आभूषण उतार डाले और सारथी को सम्हला दिए और वहीं से वापिस द्वारिका को लौट आए। द्वारिका से वे रैवतक पर्वत पर गए और वहां एक उद्यान में अपने ही हाथ से अपने केशों को लोचकर-उपाड़ कर उन्होंने साधु प्रव्रज्या अंगीकार की। ___उस समय वासुदेव ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया "हे दमेश्वर ! आप अपने इच्छित मनोरथ को शीघ्र पावें, तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षमा और निर्लोभता द्वारा अपनी उन्नति करें।" . इसके बाद राम, केशव तथा इतर यादव और नगरजन अरिष्टनेमि को वंदन कर द्वारिका आए। इघर जब राजकन्या राजिमती को यह मालूम हुआ कि अरिष्टनेमि ने एकाएक दीक्षा ले ली है तो उसकी सारी हँसी और खुशी जाती रही और वह शोक-विह्वल हो उठी। माता-पिता ने उसे बहुत समझाया और किसी अन्य योग्य वर से विवाह करने का आश्वासन दिया परन्तु राजिमती इससे सहमत न हुई। उसने विचार किया-"उन्होंने (अरिष्टनेमि ने) मुझे त्याग दिया-युवा होने पर भी मेरे प्रति जरा भी मोह नहीं किया ! धन्य है उनको ! मेरे जीवन को धिक्कार है कि मैं अब भी उनके प्रति मोह रखती हूँ। अब मुझे इस संसार में रहकर क्या करना है ? मेरे लिए भी यही श्रेयस्कर है कि मैं दीक्षा ले लूं।" ऐसा दृढ़ विचार कर राजीमती ने कांगसी-कंघी से सँवारे हुए अपने भंवर के से काले केशों को उपाड़ डाला। तथा सर्व इन्द्रियों को जीत कर रुण्ड-मुण्ड हो दीक्षा के लिए तैयार हुई । राजीमती को कृष्ण ने आशीर्वाद दिया : “हे कन्या ! इस भयंकर संसार-सागर से तू शीघ्र तर"। राजीमती ने प्रव्रज्या ली। कथा २ कंकणी का दृष्टान्त - [इसका सम्बन्ध दाल १ दोहा ६ की टि०५ (पृ०७ ) के साथ है।] कोई निर्धन धनोपार्जन के लिए परदेश गया। वहां उसने एक हजार स्वर्ण मुद्रायें कमायीं और उन्हें लेकर वह घर की ओर चला। दैवयोग से उसे रास्ते में पड़ी हुई एक कौड़ी दिखलाई पड़ी। वह उसे छोड़ कर आगे बढ़ चला। कुछ दूर जाने के बाद उसके मन में उस कौड़ी को ले लेने की इच्छा जाग पड़ी। वह उसे ले लेने के लिए वापस लौटा। रास्ते में उसने सोचा-"मैं व्यर्थ ही इन एक सहस्र मुद्राओं का भार क्यों बहन करूँ? क्यों न इन्हें यहीं गाड़ दं?" यही सोचकर उसने एक वृक्ष के नीचे सहस्र मुद्राओं को गाड़ दिया और कौड़ी लेने के लिए वापस चला। जब वह उस जगह पहुँचा, जहाँ कौड़ी पड़ी हुई थी तो वह भी वहां नहीं थी। उसे पहले ही कोई उठा ले गया था। निराश होकर वह मुद्राओं की ओर चला। उन्हें भी कोई चोर खोदकर ले गया था। जैसे एक कौड़ी के लोम में एक हजार मुद्राओं को गाकर वह मूर्ख पश्चाताप करता हुआ घर आया, उसी प्रकार मुर्ख तुच्छ मानुषी भोगों में फँस उत्तम सुखों को खो देता है। १-उत्तराध्ययन सूत्र अ०७ गा०:११ की नैमिचन्द्रीय टीका के आधार पर। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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