SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सीजी बाड़: ढाल ४: टिप्पणियाँ minutsukoliticAMACHARiotiauntilads -जैसे अग्नि के पास रखा हुआ लाख का घड़ा शोघ तप्त होकर सा आलाख का घड़ा शनि तप्त होकर नाश को प्राप्त हो जाता है, उसी तरह स्त्रियों के सहवास से अनगार का संयम रूपी जीवन नाश को प्राप्त हो जाता है। स्वामीजी ने घी का दृष्टान्त दिया है। आगम में लाख का दृष्टान्त है। [३] दोहा ४ स्वामीजी ने इस दोहे में जो अग्नि और लोह का उदाहरण 'नआरलाह का उदाहरण दिया है वह उनका मौलिक दृष्टान्त है। स्वामीजी के कथन का सार यह है कि में अग्नि कठोर स कठार लाह का मा उसमें डालने पर गला देती हैं, उसी तरह कोई चाहे कितना हो बड़ा तपस्वी क्यों न हो. यदि वह स्त्रा क साथ पकासन पर बैठता है तो उसका मनोवल क्षीणता को प्राप्त हुए बिना नहीं रह सकता। अतः एकासन पर न बैठना, यह समस्त ब्रह्मचारियों के लिए एक सामान्य नियम है। स्वामीजी के इस दोहे का आधार आगम का निम्नलिखित श्लोक है : जे एयं उंछ' अणुगिढा अन्नयरा हंति कुसोलाण । सुतवस्सिए वि से भिक्खू. नो विहरे सह णमित्थोसु ॥ -सू०१.४।१:१२ -सुतपस्वी भिक्षु भी स्त्री के साथ विहार न करे। [४ ] ढाल गा० १-२ एकासन पर बैठने पर ब्रह्मचारी का पतन किस तरह होता है. इसका वड़ा सुन्दर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण इस गाथा में है। एक आसन पर बैठने पर संसर्ग होता है. संसर्ग से स्पर्श होता है. स्पर्श से तीव्र विषय-वासना की जागृति होती है. विषय वासना की जागृति से संयोग होता हैं। इस तरह ब्रह्मचर्य व्रत का सम्पूर्णतया नाश होता है।। 'गोता' में पतन का क्रम निम्नरूप में मिलता है : ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषूपजायते । सहात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥ गते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥ क्रोधात् भवति संमोह संमोहात् स्मृति विभ्रमः । स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो वृद्धि नाशात् प्रणश्यति ॥ -गोता अ० ११: ६२-६३ -विषयों का चिन्तन करनेवाले पुरुष को उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है,आसक्ति से कामना होतो है और कामना से क्रोध होता है। क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है. मूढ़ता से होश ठिकाने नहीं रहता, होश ठिकाने न रहने से ज्ञान का नाश हो जाता है और जिसका ज्ञान नष्ट हो गया वह मृतक तुल्य है। [५] ढाल गा० ३: गा०३: इस गाथा में 'आसन' शब्द का अर्थ बताया गया है। पाट-अर्थात् बेठने का काठ का तरन्ता-पीठ, बाजोट-पाट से बड़ा तरता. सज्जा-शय्या-सोने का पाट, संथारा-संस्तारक-विद्यौना आदि 'आसन' की परिभाषा में आते हैं। [६] ढाल गा०४: इस गाथा का आधार सूत्र का निम्नलिखित श्लोक है:.. : अदु णाइणं च सहीणं वा, अप्पियं दढ़ एकया होइ। गिद्धा सत्ता कामहिं रक्खणपोसणे मणुस्सोऽसि ॥ -सू०१.४।१:१४ [७] ढाल गा० ५ इस गाथा में ब्रह्मचारी को उस स्थान या आसन का तुरंत उपयोग करने की मनाही है जिस स्थान या आसन पर से स्त्री तुरंत हो उठी ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए यह आवश्यक माना गया है कि ऐसे स्थान या आसन पर साधु अंतर मुहूर्त के पहले न बैठे। melan Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy