SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - शील की नव बाड़ -तिणरे हाथै न आई मिरगावती रे, ते यही हुओ खुराव । फिट २ हुओ लोक में रे, . घणीं पड़ाइ आव रे ॥भ०॥ १०-पदमोतर राजा नारद कनें रे, द्रोपदी रा रूप री सुण वात । देव कनें मंगाई तिण द्रोपदी रे, तो इजत गमाई साख्यात रे ॥ भ०॥ ११-नारी कथा सुणने विगड्या घणां रे, त्यांरा कहितां न आ पार। ते भिष्ट हुवां वरत भांग में रे, ते हार गया जमवार रे ।। भ०॥ १२-नींव फल नी वारता सुणयां रे, मुख पाणी मेले छ ताय । ...... ज्यं अस्त्री कथा सुणीयां थकां रे, परिणाम थोडा में चल जाय रे ॥ भ०॥ -पर मृगावती उसके हाथ नहीं आई और वह व्यर्थ ही खराब हुआ। वह लोक में धिक्कारा गया। उसने अपनी प्रतिष्ठा खो दी। .. हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। १०-महाराजा पद्मोत्तर ने नारद से द्रौपदी के रूप की बात सुनकर देव के द्वारा द्रौपदी को अपने पास मँगवा लिया। पद्मोत्तर को इस कार्य के कारण अपनी इज्जत देनी पड़ी। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। - ११–नारी-कथा के सुनने से अनेक (व्यक्ति ) बिगड़ चुके हैं, जिनका कहने से पार नहीं आता। वे व्रतों को भंग कर भ्रष्ट हो गये और उन्होंने अपना जन्म व्यर्थ में खो दिया। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। __ १२-जिस प्रकार नीबू ( फल ) का वर्णन सुनने से मुख में पानी छूटने लगता है, उसी प्रकार नारी की कथा सुनने से परिणाम शीघ्र विचलित हो जाता है। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। १३-मन में शंका तथा कांक्षा उत्पन्न होती है। ऐसी विचिकित्सा उत्पन्न होती है कि मैं शीलवत पालूं या नहीं ? इसी कारण भगवान ने दूसरी बाड़ में कहा है कि ब्रह्मचारी को नारी-कथा नहीं करनी चाहिए। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। ___१४-बार-बार स्त्री-कथा नहीं करनी चाहिए। जो इस दूसरी बाड़ का शुद्ध रूप से पालन करेगा वह अविचल धाम-मोक्ष को प्राप्त करेगा। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। १३-संका कंखा वितिगछा मन उपजे रे, सीयल परत पालू के नांहीं । तिण सं नारी कथा करवी नहीं रे, दजी बाड़ रे माही रे ॥ भ०॥ १४.-वार वार अस्त्री तणी रे, कथा न कहणी -तांम। ए बीजी बाड़ सुध पालसी रे, ते पांमसी अविचल ठाम रे ॥भ०॥ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy