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________________ प्रथम बाड़ डाल २ टिप्पणियाँ [२] दोहा ५-६ : प्रथम वाड़ को व्याख्या स्वामीजी ने दो प्रकार से की है। जहाँ खो रहती हो वहाँ ब्रह्मचारी रात्रिवास न करे-यह प्रथम व्याख्या है। ब्रह्मचारी किसी भी समय अकेली स्त्री को संगति न करे, यहाँ तक कि अकेली स्त्री को धर्म-कथा मी न कहे—यह दूसरी व्याख्या है। स्वामीजी ने आगे का विवेचन इन दोनों व्याख्याओं को ध्यान में रखकर किया है। प्रथम दाड़ की ऐसी परिभाषा का आधार आगम के निम्न वाक्य हैं : इत्थोपसता - निर्धन्धा, स्त्री, पशु तथा नपुंसक से संसक शयन- आसन आदि का सेवन न करें। समरेसु अगारेषु सन्धीय मह एगो थिए सद्धि नैव चि नये ॥ इस दोहे का आधार आगम का निम्नलिखित श्लोक है : गासमा विचारसिया - उत्त० १:२६ - घर की कुटी में, घरों में, घरों की सन्धियों में और राजमार्ग में अकेला साथ अकेली स्त्री के साथ न खड़ा हो और न उसके साथ संलाप करें। [ ३ ] दोहा ७ : [४] दोहा ८: - आचारांग ०२ : १५ (चौथे महाव्रत को पांचवीं भावना) अदु नाइणं च सुहोणं वा अप्पियं दद एगया होइ। गिद्धा सत्ता कामेश क्लोस मनुस्सोऽसि ॥ आठवें दोहे के प्रथमार्द्ध का आधार निम्नलिखित छोक है - किसी स्त्री के साथ एकान्त स्थान में बैठे हुए साधु को देखकर उस स्त्री के ज्ञातो होता है। वे समझते हैं कि जैसे दूसरे पुरुष काम में आसक्त रहते हैं. इसी तरह यह साधु भी इसका भरण-पोषण भी कर क्योंकि तू इसका पत्ति है । १५ - - सू० १४१: १४ और सुहृदों को कभी-कमी चित्त में अत्रिय-दुःख उत्पन्न कामासक्त है। फिर वे क्रोधित होकर कहते हैं कि तू विवित्तमगणं रहिये इत्योजग य बॅनचेरस्स रखड्डा आलयं तु निसेवर ॥ उत० १६:१ मुमुचर्य की रक्षा के लिए विविक्तसाली अनाकीर्ण और स्त्रियों से रहित स्थान में वास करें। [ ५ ] दोहा ८ : आगे जो वर्णन आया है उसमें ब्रह्मचारी को स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त स्थान का वर्जन करने का कहा गया है। इस विषय में 'प्रश्नव्याकरण' सूत्र में बड़ा गम्भीर विवेचन है। वहाँ कहा है गोओ कर्हिति य कहाओ व जनजा "जस्य इरिथयात्र अनिक्स मोहोरा राग — जहाँ मोह और रति-काम-राग को बढ़ानेवाली स्त्रियों का वार वार आवागमन हो और जहाँ पर नाना प्रकार को मोहजनक स्त्री-कथाएँ कही जाती हो ऐसे सब स्थान ब्रहाचारी के लिए वर्जनीय है। जत्थ मणोविव्ममो वा मंगो वा मंसणा वा अट्टं रुई च हज्ज झाणं तं तं वज्जेज वज्जमीरु -प्रश्न २४ पहली भावना - जिन स्थानों में रहने से मन विभ्रम को प्राप्त होता हो, ब्रह्मचर्य के सम्पूर्ण रूप से या अंश रूप से मंग होने की आशंका हो और अपध्यानआ और रौद्रं ध्यान उत्पन्न होता हो वै स्थान पाप-भीरु ब्रह्मचारी के लिये वर्जित हैं। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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