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________________ शील की नव बाड में भी एक अद्भुत पदार्थ-पाठ संसार के सम्मुख रखा। इस तरह ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में वे अनुपम जगद्गगुरु सिद्ध हुए. इसमें कोई अतिशयोक्ति जैसे तपस्या के क्षेत्र में तीर्थकर महावीर श्रेष्ठ तपस्वी माने जाते हैं, वैसे ही भोग-त्याग के विषय में नेमिनाथ उत्कट त्यागी और ब्रह्मचारी मानना हैं। इसी कारणवश स्वामी जी ने अपनी कृति के आरंभ में उनका स्मरण किया है। श्रीमद् जयाचार्य ने कहा है। प्रभु नेमि स्वामि, तं जगनाथ अंतरजामी। तूं तोरण स्यूं फिरचो जिन स्वाम, अद्भुत वात करी ते अमाम ॥ १॥ राजेमती छांड़ी जिनराय, शिव सुन्दर स्यूं प्रीत लगाय ॥२॥ केवल पाया ध्यान वर ध्याय, इन्द्र शची निरखे हर्षाय ॥ ३ ॥ नेरिया पिण पामै मन मोद, तुझ कल्याण सुर करत विनोद ॥ ४॥ राग रहित शिव सुख स्यूं प्रीत, कर्म हणे वलि द्वेष रहित ॥ ५॥ अचरिजकारी प्रभु थारो चरित्र, हूँ प्रण कर जोड़ी नित्य ॥ ६॥ [२] दोहा १, २ : प्रथम दो दोहों में नेमिनाथ और राजिमती का नामोल्लेख है। जिस जीवन-प्रसंग के कारण उनका नाम-स्मरण किया गया है उसका विवरण 'उत्तराध्ययन' सूत्र के २८ वें अध्ययन में मिलता है। परिशिष्ट में पूरा विवरण दिया गया है। देखिए परिशिष्ट-क : कथा-१। [३] दोहा ४ ब्रह्मचर्य का गुण-वर्णन 'प्रश्नव्याकरण' सूत्र में इस प्रकार किया गया है: "इस एक ब्रह्मचर्य के पालन करने से अनेक गुण अधीन हो जाते हैं। यह व्रत इहलोक और परलोक में यश, कीर्ति और प्रतीति का कारण है। जिसने एक ब्रह्मचर्य-व्रत की आराधना कर ली-समझना चाहिए उसने सर्व व्रत, शील, तप, विनय, संयम, क्षांति, समिति, गुप्ति यहाँ तक कि मुक्ति की भी आराधना कर ली। "ब्रह्मचर्य व्रत सदा प्रशस्त, सौम्य, शुभ और शिव है। वह परम विशुद्धि-आत्मा की महान् निर्मलता है। भव्य -मुमुक्षु पुरुषों का आचीर्ण-उनका जीवन है। यह प्राणी को विश्वासपात्र-विश्वसनीय बनाता है। उससे किसी को भय नहीं रहता। "यह तुष-भूसी रहित धान की तरह सार वस्तु है। यह खेदरहित है। यह जीव को कर्म से लिप्त नहीं होने देता।. चित्त की स्थिरता का हेतु है। धर्मी पुरुषों का निष्कंप-शाश्वत नियम है। तप-संयम का मूल-आदिभूत द्रव्य है। "आत्मा की अच्छी तरह रक्षा करने में उत्तम ध्यान रूपी कपाट और अध्यात्म की रक्षा के लिए अविकार रूप अर्गला है। दुर्गति के पथ को रोकनेवाला कवच है। सुगति के पथ को प्रकाशित करनेवाला लोकोत्तम व्रत है। “यह धर्मरूपी पद्म-सरोवर को पाल है ; गुण रूपी महारथं की धुरी है और व्रत-नियम रूपी शाखाओं से फैले हुए. धर्म रूपी बट-वृक्ष का स्कन्ध है। "शील रूपी महानगर की परिधि (परकोटे) के द्वार को अर्गला है। रस्सियों से बँधी इन्द्र-ध्वजा के समान अनेक गुणों से स्थिर धर्म-पताका है। “एक ब्रह्मचर्य-व्रत भंग होने से सहसा सब गुण भंग हो जाते हैं : मर्दित हो जाते हैं : मथित हो जाते हैं. कलुषित हो जाते हैं, पर्वत से गिरी हुई वस्तु की तरह टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं और विनष्ट हो जाते हैं।" [४] दोहा ५: पाँचवें दोहे के पूर्वार्द्ध का भाव शंकराचार्य के निम्न लोक से मिलता है: १ अङ्ग गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जातं तुण्डम् ॥ वृदो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुश्चत्याशा पिण्डम् ॥ मज गोविन्दं, भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढमते। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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