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________________ शील की नव बाड़ 14 मालपारि सुन्दरी रे एक जामण जणियो, बाहुबल कला बहोत्तर भणियो। : .. ..........पछे एनंदा री फूख न खुली काई॥ चतुर वायां सीखी चोसठ कला, गुण ज्यांमें पढिया सगला । त्योरी अकल में कमी नहीं काई ॥ यह बायां हां यतीस लखणी, अठारे लिपि एक ब्राह्मी भणी। : - श्री आदि जिनेश्वर सीखाई ॥ My nangita एक सीलरोस्वाद वस रह्यो मन में, कदे विषेरी वात. न तेवड़ी तन में। छोड दीधी ममता सुमता आई ॥ . येह बेटी वीनवे यापजी आगे, म्हाने सील रो स्वाद वल्लभ लागे। - म्हारी मत करजो कोई सगाई॥ . म्हें तो नारी किणरी नहीं बाजा, म्हें तो सासरारोनाम लेती लाजा। म्हारे पीतम री परवाह नहीं कांइ॥ बापजी बोल्या मुणो बेटी, थेंता मोह जाल ममता मेटी। याना - Memyा थारी करणी में कसर नहीं काई ॥ * भरत नहीं लेवण देवे दीक्षा, ब्राह्मी सील तणी मांडी रक्षा । .. रूप देखी भरत रे वंछा आई॥ :mirmiss सती बेले वेले पारणो कीनों, एक लुखो अन पाणी में लीनों। शाम फूल ज्यूं काया पडी कुमलाई ॥ .. भरत री विपेर जाणी मनसा, तिणसं ब्राह्मी झाली तपसा । साठ हजार वरस री गिणती आई ॥ .... भरत छोड दीनी मन री ममता, सती रो सरीर देखीनें आइ समता । पछे दीपती दीक्षा दराई। . बेई बायां रे बेराग घणो, बेहूं कुमारी किन्या लीधो साधपणो। बेई जिनमारग में दीपाई ॥ वेई रिषभदेव नी हुई चेली. प्रभ बाइबल पासे मेली। सती समझायनें पाठी आई ine . मामी और मुन्दरी के जीवन की एक अनोखी घटना का प्रसंग यहाँ उल्लिखित है। भरत को छोड़ कर सुमंगला के ६८ पुत्र तीर्थकर पभदेव के पास दीक्षित हो गये । बाहुबल भी दीक्षित हो गये। बाहुबल वय में बड़े थे पर, दीक्षा में छोटे थे। दीक्षा के बाद वे घोर तप में प्रवृत्त हए । गणधरों ने अपभदेव से पूछा-"बाहुबल कहाँ हैं ?" उन्होंने उत्तर दिया- 'वह घोर तपस्या में रत है। परन्तु वह अपने से दीक्षा में बड़े पर आयु में छोटे ६८ भाइयों को अभिमानवश वंदना नहीं करता, अतः उसे केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता।" यह सुनकर ब्राह्मी तथा सुन्दरी दोनों बहिन ऋषभदेव के पास आई और बोली-"यदि आप आज्ञा दें तो हम बाहबल को समझा कर मार्ग में लावें।" अपभदेव बोले : "तुम्हें सुख हो वैसा करो। पर तुम लोगों को वह खोजने पर नहीं मिलेगा। अपने शब्द. उसे सुनाना।" अब दोनों बहिने बाहुबल को समझाने चलीं। जङ्गल में जाकर वे गाने लगी: थें राज रमण रिध परहरी, वले · पुत्र त्रिया अनेको रे । पिण गज नहि छटो ताहरो, तूं मन मांहे आण विवेको रे॥ वीरा म्हारा गंज थकी उतरो, गज चढियां केवल न होयो रे। आपो खोजो आपरो, तो तं केवल जोयो रे॥ यह सुन कर बाहुबल सोचने लगे : "मैं कौन से हाथी पर चढ़ा हुआ हूँ कि ये मुझे उससे उतरने के लिए कह रही हैं? मैं सब का त्याग कर चुका । मेरे पास हाथी कहाँ है?". फिर उन्होंने सोचा-"ठीक, मैं पार्थिव हाथी, घोड़े, रथों का तो त्याग कर चुका पर अभिमान रूपी हाथी पर अभी भी आरूढ हूँ, जो अपने से दीक्षा में बड़े-छोटे भाइयों की वंदना नहीं करता । ऐसा सोच वे विनम्रबन गये और भाई-मुनियों को पंदना करने के लिए पैर उठाया। जैसे ही उन्होंने कदम आगे रखा, उन्हें केवलज्ञान हो गया। माझी और सुन्दरी वापिस लौटीं। इसी घटना का संकेत इस गाथा में है। wi -. Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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