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________________ भूमिका और कृत-कारित-अनुमति रूप से विरति ब्रह्मचर्य है। । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि महात्मा गांधी, संत विनोबा आदि आधुनिक विचारकों का चिन्तन प्राचीन जैन चिन्तन से भिन्न नहीं है। वैदिक धारा के अनुसार ईश्वर ब्रह्म है और जैन विचारधारा के अनुसार मोक्ष ब्रह्म है । इतना ही मन्तर है। तुलना से स्पष्ट होगा कि आगमों में उपलब्ध ब्रह्मचर्य शब्द की व्याख्या अधिक स्पष्ट, सूक्ष्म और व्यापक है। बौद्ध पिटकों में ब्रह्मचर्य शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। यह नीचे के विवेचन से स्पष्ट होगा- माता१-पापी मार बुद्ध से बोला-"भन्ते ! भगवान् अब परिनिर्वाण को प्राप्त हों। यह परिनिर्वाण का काल है ।" तब बुद्ध ने उत्तर दिया-"पापी ! मैं तब तक परिनिर्वाण को नहीं प्राप्त होऊँगा, जब तक कि यह ग्रहाचर्य ऋद्ध, विस्तारित, बहुजनगृहीत, विशाल, देवताओं और मनुष्यों तक सुप्रकाशित न हो जायेगा।" यहाँ स्पष्टत: 'ब्रह्मचर्य' शब्द का अर्थ बुद्ध प्रतिपादित धर्म-मार्ग है । इस अर्थ में 'ब्रह्मचर्य' शब्द का प्रयोग बौद्ध त्रिपिटकों में अनेक स्थलों परं मिलता है । वहाँ ब्रह्मचर्य-वास का अर्थ है बौद्धधर्म में वास। २–भगवान का धर्म स्वाख्यात है। वह स्वाख्यात क्यों है ?......अंथ व्यञ्जन सहित सर्वांश में परिपूर्ण ब्रह्मचर्य को प्रकाशित करने से स्वाख्यात है। यहाँ ब्रह्मचर्य का अर्थ है वह चर्या जिससे निर्वाण की प्राप्ति हो। ३–ब्रह्मचर्य अर्थात मैथन-विरमण। HERE ब्रह्मचर्य शब्द के ये अर्थ जैनधर्म में प्राप्त अर्थों जैसे ही हैं। न २-जीवन में ब्रह्मचर्य के दोनों अर्थों की व्याप्ति ही ब्रह्मचर्य के उपर्युक्त दोनों अर्थों की व्याप्ति जीवन में इस प्रकार होती है । जब मनुष्य जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष—इन पदार्थों के स्वरूप को जान लेता है तब देव और मनुष्यों के कामभोगों को नश्वर जानने लगता है। वह सोचने लगता है"काम भोग दु:खावह हैं। उनका फल बड़ा कट होता है। वे विष के समान हैं। शरीर फेन के बुद्बुद् की तरह क्षणभंगुर है। उसे पहले या पीछे अवश्य छोड़ना पड़ता है। जरा और मरणरूपी अग्नि से जलते हुए संसार में मैं अपनी आत्मा का उद्धार करूँगा।" इस तरह वह विरक्त हो जाता है। जब मनुष्य दैविक और मानुषिक भोगों से इस प्रकार विरक्त होता है, तब वह अन्दर और बाहर के अनेकविध ममत्व को उसी प्रकार छोड़ देता है जिस तरह महा नाग कांचली को। जैसे कपड़े में लगी हुई रेणु-रज को झाड़ दिया जाता है, उसी प्रकार वह ऋद्ध, वित्त, मित्र, पुत्र, स्त्री और सम्बन्धीजनों के मोह को छिटका कर निष्पृह हो जाता है । जब मनुष्य निष्पृह होता है, तब मुण्ड हो अनगारवृत्ति को धारण करता है।जब मनुष्य मुण्ड हो अनगारवृत्ति को धारण करता है, तब वह उत्कृष्ट संयम और अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है५ . इस श्रामण्य का ग्रहण ही उपर्युक्त प्रथम कोटि का ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के प्रथम व्यापक अर्थ को ध्यान में रख कर ही कहा गया हैजो ऐसे श्रामण्य (ब्रह्मचर्यवास) को ग्रहण करता है उसे सहस्रों गुण धारण करने पड़ते हैं, इसमें जीवन-पर्यन्त विश्राम नहीं। यह लोह-भार की . wistine TREA -१-आचाराङ्ग नियुक्ति गा० २८ की टीका : सर्व दिव्यात्कामरतिमुखात् त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् । र औदारिकादपि तथा तद् ब्रह्माष्टादशविकल्पम् ॥ २-दीघ-निकाय : महापरिनिब्बाण सुत्त पृ० १३१E ३--वही : पोट्टपाद पृ० ७५ ४-विशुद्धि मार्ग (पहला भाग) पृ० १६५ ५-(क) दशवकालिक ४:१४-१६ (ख) उत्तरांध्ययन १६:११-१३,१४,२४,२७Enimite : Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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