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________________ 2009 भूमिका १- ब्रह्मचर्य का परिभाषा 'शील की नव बाड़' में प्रयुक्त 'शील' का अर्थ ब्रह्मचर्य है और 'बाड़' का अर्थ है ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपाय अथवा ब्रह्मचारी के रहन-सहन की मर्यादाएं धौर शिष्टाचार । श्री मङ्गलदेव शास्त्री के अनुसार सृष्टि के समस्त पदार्थों का जो अजय, कूटस्थ, शावत, दिव्य मूलकारण है वह 'ब्रह्म' है अथवा ज्ञानरूप वेद 'ब्रह्म' है । ऐसे 'ब्रह्म' की प्राप्ति के उद्देश्य से व्रत ग्रहण करना ब्रह्मचर्य है ' । श्री विनोबा कहते हैं : "ब्रह्मचर्यं शब्द का मतलब है....ब्रह्म की खोज में अपना जीवन-क्रम रखना... सबसे विशाल ध्येय परमेश्वर का साक्षात्कार करना । उससे नीचे की बात नहीं कही है ।" महात्मा गांधी लिखते हैं: "ब्रह्मचर्य के मूल अर्थ को सब याद रखें । ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म की - सत्य की शोध में चर्या, अर्थात् तत्— सम्बन्धी आाचार इस मूल अर्थ में से सर्वेन्द्रियसंयमरूपी विशेष अर्थ निकलता है। केवल जननेन्द्रियसंयम रूपी अधूरे घर्ष को तो हमें भूल ही जाना चाहिए।" उन्होंने अन्यत्र कहा है "ब्रह्मचर्य क्या है यह जीवन की ऐसी चर्या है जो हमें ब्रह्म-ईश्वर तक पहुंचाती है। इसमें जननक्रिया पर सम्पूर्ण संयम का समावेश हो जाता है । यह संयम मन, वचन और कर्म से होना चाहिए ४ ।” उपर्युक्त तीनों ही विचारकों ने 'ब्रह्मचर्य' शब्द के अर्थ में सुन्दरता लाने की चेष्टा की है और उसे बड़ा व्यापक विशाल रूप दिया है। पर वंसा अर्थ वेदों में उपलब्ध ब्रह्मचारी अथवा ब्रह्मचर्य शब्द का नहीं मिलता। सायण ने ब्रह्मचारी शब्द का घर्ष करते हुए लिखा है"ब्रह्मचारी ब्रह्मणि वेदात्मके अध्येतव्ये चरितुं शीलम् यस्य सः ५ ” – वेदात्मक ब्रह्म को अध्ययन करना जिसका श्राचरण - शील है उसे ब्रह्मचारी कहते हैं। ब्रह्मचर्य की परिभाषा इस रूप में मिलती है" वेद को ब्रह्म कहते हैं। वेदाध्ययन के लिए आचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य है।" यहाँ कर्म का अर्थ है समिधादान, भिक्षाचर्या और ऊर्ध्वरेतस्कत्व आदि । कर्म शब्द में उपस्थ- संयम, इन्द्रिय- संयम का समावेश भले ही किया जा सके पर वेद प्रयुक्त ब्रह्मचर्य शब्द की जो प्राचीन परिभाषा है वह ऐसा धर्म नहीं देती, यह स्पष्ट है। महर्षि पतञ्जलि ने ब्रह्मचर्य का अर्थ 'वस्ति निरोध' किया है। अब हम जैन श्रागमों में वर्णित 'ब्रह्मचर्य' शब्द की व्याख्या पर श्रावें । सूत्रता में कहा है "ब्रह्मचर्य को ग्रहण कर मुमुक्षु पदार्थ शाश्वत ही हैं, शाही हैं, लोक नहीं है, मलोक नहीं है, जीव नहीं है, जीव नहीं है आदि-आदि दृष्टियां न रखे ।" यहां "ब्रह्मचर्य' शब्द की व्याख्या करते हुए श्री शीलाङ्क लिखते हैं- “जिसमें सत्य, तप, भूत-दया १ - भारतीय संस्कृति का विकास (प्र० ख० ) पृ० २२८ : सर्वेषामपि भूतानां यत्कारणमव्ययम् । 2 कूटस्थं शाश्वतं दिव्यं वेदो वा, ज्ञानमेव यत् ॥ तदेतदुभयं ब्रह्म ब्रह्मशब्देन कथ्यते । तदुद्दिश्य मतं यस्य ब्रह्मचारी स उच्यते ॥ २ – कार्यकर्ता वर्ग : ब्रह्मचर्य पृ० ३१ ३२ ३- मंगल प्रभात १० १६-१७ क ४– Self Restraint V. Self- Indulgence p. 165 से अनूदित ५ - अथर्ववेद ११.५.१ सायण ६ - अथर्ववेद ११.५.१७ सायण ७-सूत्रकृतांग २.५:१-३२ लाइ Annamalai Whylab fongage f m Our fapy fog forpo f ww fog wife fr 325 Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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