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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गुणचंदसूरि www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंद्रहवीं सदी गाइ मण प्रणुरागिहि फागिहिं नेमिकुमार | जिणि जगि सयल विदीतउ, जीतउ भुजबल मारु | २ अन्त - प्रगणिय राजल वयस्णु, दाण संवत्सर देई ।. रेव गिरिवर सामिसाल, संजमसिरि लेई | चउपन दिणि अकलंक, विमल केवलसिरि पामिय । घणइ कालि राइमइ सरिसु, सिवि पत्तउ सामिउ ४८ नवजुव्वभरि सील. सबलु, सोहागिहि सारो । मणवंच्छिय फलदेउ देउ, सिविदेवि मल्हारो | सिरि महिंदष्पहसूर सीसि जयसेहरि कीजइ । 1 फागु एउ भवियणि वसंत ऋतु रसिंहिं रमीजइ । ४६ प्रकाशित - प्राचीन फागु संग्रह पृ० २४२-१=२४२-७ दे - जैन गु० क - भाग १ पृ० २४ भाग ३ पृ० ४२४-२६-१४०८ (६५) गुणचंदसूरि ( १११ ) वसंत फागु गाथा १६, १५वीं शताब्दी प्रादि- अहे फागुण फली अ बीजोरडी, पुहतलु मास वसंत । afi aft तर कूपला, केसू कसम अनंत । १ कामिणि कारण भमरलु, भमतु माझिम राति । काची कलिय म भोगवी, भोगवी नव नवि भाति ॥२ मन्त - अहे नइ हरि मइ आराहीउ, नवि जागु सिवराति । गोरी कंठ न ऊतरि, माहरी उत्तम जाति । १५ For Private and Personal Use Only [ ६९
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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