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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनप्रभसूरि शिष्य चौदहवीं सदी [१ हव पुण थाकई जे दिण केई, सफल करउ ते अणसणु लेई । इम भणि संधु कमावइ सुहमणु, एगारस दिण पालइ अणसणु ॥३८ मुणिहिं गुणीतइ समइ सुहारसि, बाहत्तरइ माह वदि बारसि । गच्छ सीख देविणु मह चित्तू, हेमतिलय सूरि दिव संपत्तू ॥३६ जस महिम करंतइ, जणि गुणवंतइ, जिण सासरण उज्जोइयो । सो गुरू निय गच्छह, अणु मणि सत्थहं, संघह मण वंछियदियो ॥४० इति श्री हेम तिलक सूरि संधि ॥ प्र० परिषद पत्रिका प्राप्ति-अभय जैन ग्रन्थालय (३४) ख० जिनप्रभसूरि शिष्य (४४) जिनप्रभसूरि गीत त्रय सं० १३८५ लगभग (१) आदि के सलहउ ढीली नयरु हे, के वरनउ वखाणू ए । जिनप्रभसूरि जग सलहीजइ, जिणि रंजिउ सुरताणू ए॥" अन्त-ढोल दमामा अरु नीसाणा, गहिरा वाजइ तुरा ए। इण परि जिणप्रभसूरि गुरु प्रावइ, संघ मणोरह पूरा ए ॥६ (२) आदि-उदयले खरतरगछ गयणि, अभिनवउ सहस करो सिरी जिणप्रभसूरि गणहरो, जंगम कलपतरो॥१ तेर पंचासियइ पोस सुदि पाठमि सणिहि वारो। भेटिउ प्रसपते महमदो, सुगुरि ढीलिय नयरे ॥२ अन्त-सानिधि पउमिणि देवि इम, जगि जुग जयवंतो नंदउ जिणप्रभसूरि गुरो, संजमसिरि तणउ कंतो ॥१० For Private and Personal Use Only
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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