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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनचन्द्र सूरि शि० चौदहवीं सदी [२७ (२८) लखमसीह (ख० जिनचंद्रसूरि भक्त श्रावक) (३७) श्री जिनचंद्रसूरि वर्णना रास गा० ४७ ऐति. आदि -पास जिणेसर वीतराहु, पणमेविरणु भत्ति । कर जोडवि सुय देवि नमिवि, कारउ विन्नती।। चरिऊ रइसु मणि रायहंसु, पहु जिणचंद सूरि नचहु भवियह भावसारु, गय कलिमलु दूरि ॥१ . अन्त- जुग पहाण पह जिणचंद सूरि, पयट्ठउ निय पयाव जसु पूरि । 'लक्खम सीहु' वन्नवइ अवधारि, अम्ह हिव कुग्गइ गमरणु निवारि॥ प्रतिलिपि:-अभय जैन ग्र'थालय वि० जिनचंद्रसूरि जी का प्राचार्यकाल सं० १३४१ से ७६ तक (२६) जिनचंद्रसूरि शिष्य (३४) जिनचंद्र सूरि फागु गा० २५ आदि-अरे पणमवि सामिउ संति जु, सिव वाउलि उरि हारु । अरे अणहिलवाड़ा मंडणउ, सव्वह तिहुयण सारु ।। अरे जिणपबोह सूरि पाटिहि, सिरि सजमु सिरि कंतु । अरे गाइवउ जिणचंदसूरि गुरु, कामल देवि कउ पूतु ॥१ अन्त-मध्य में त्रुटित मालवा की बाउल भणहि, सयलहं लोयहं मांहि । For Private and Personal Use Only
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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