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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री० लखण तेरहवीं सदी तहि वदउ जस सूरि सुहकारु, तब सिरि कन्ह वयंस पयारु । धर्मसूरि बारह नावउ संतह, हरउ दुरिउ सुह कर पढतह || ४६ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विन्नतिय निमुणेहि, सासण दिवि सायरु | नंद धर्मसूरि लोए, जां चन्द दित्रायरु ||५०|| इति बारह नावउ सम्मतं - इसके पश्चात् रविप्रभ सूरि रचित धर्म सूरि स्तुति है । प्रभय प्राप्ति स्थान - पाटण भंडार - ताडपत्रीय प्रति पृ० ३७ । प्रतिलिपि - जैन ग्रन्थालय । प्र० हिन्दी अनुशीलन वर्ष ६ अं० ४ तेरहवीं शताब्दी (६) श्र० लखण (लक्ष्मण) (६) जिनचन्द्रसूरि काव्याष्टम् गा० ८ प्रादि- अभय सूरि सिरि सीसु सगुण, जिणवल्लहु दिट्ठउ । तसु पट्टह जिणदत्त सूरि, अवट्ठमि बइट्ठउ | दिव्वं नाण पहाण वलिण, ज कियउ अचंभमु । वालराणि लिन मग्गि सगुरि, रासल अगुब्भमु || गुरु पारतंतु अगमहि भतु, जिणयत्तसूरि फुड, उच्चरिवि । दुजा वढि सुहु, तुझ धम्मु कमि कमि करिवि ॥ १ ॥ अन्त- अज्जु दियहु सकयत्थु, अज्जु नर वन्नु सुहावउ । अज्जु वारु रमणीउ, अज्जु सवच्छरु आवउ ॥ अज्जु जोउ जयवंतु, अज्जु महु करणु पियंकरु | For Private and Personal Use Only [ ५
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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