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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २] मरू-गूर्जर जैन कवि पं० घणपालकृतः श्रीसत्यपुरमंडन-श्रीमहावीर उत्साहः समाप्तः। प्र. जैन-साहित्य संशोधक ख० ३ अं० ३ वि० तिलकमंजरी रचयिता, महाकवि शोभनमुनि के भ्राता। बारहवीं शताब्दी (२) वर्द्धमान सूरि (२) वीर जिरणेसर पारणउ गा० ४३ आदि:- जस निसुणह एकग्ग मण, धम्मि धरेविण चित्तु । वीर जिणिदह पारणउ, कोसबियहि ज वित्त ॥१॥ अन्तः-वद्धमाण सूरिहिं पणय, हरिपत्थु थुइ वाय । __ भवि भवि तेम पसीय महु, जेम थुणतुह पाय ।।४३।। श्रीवीरजिनेश्वरस्य पारणकं समाप्तमिति । [ सं० १२८६ लिखित प्रकरण पुस्तिका, ताडपत्रीय प्रति-मणिसागरसूरि संग्रह, कोटा, पाटण भं० सूची पृ० ४१२ ] प्र० हिन्दी अनुशीलन वर्ष ३ अंक २ वि० वर्द्धमान सूरि ११-१२ वीं शताब्दी में दो हो गये है१ खरतर विरुद पाने वाले जिनेश्वरसूरि के गुरु वद्ध'मानसूरि समय सं० १०५५ से सं० १०८० । २ द्वितीय अभयदेवसूरि के शिष्य, समय सं० ११३० से ११७२ संभवतः उपर्युक्त रचना द्वितीय वर्द्धमानसूरि को होगी। For Private and Personal Use Only
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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