________________
तैत्तिरीयोपनिपद्
[बल्ली १
मोक्ष-साधनकी मीमांसा अत्रैतचिन्त्यते विद्याकर्मणो- अब विद्या और कर्मका विवेक गोक्षकारण- विवेकार्थ किं कर्म- [अर्थात इन दोनोंका फल भिन्न
भिन्न है-इसका निश्चय ] करनेके मीमांसायां भ्य एव केवलेभ्यःलिये यह विचार किया जाता है चत्वारो विकल्पाः परं श्रेय उत वि-कि (१) क्या परम श्रेयकी प्राप्ति द्यासव्यपेक्षेभ्य आहोखिद्विद्या- केवल कर्मसे होती है, (२) अथवा
विद्याकी अपेक्षायुक्त कर्मसे, (३) कमम्या सहताम्या विद्याया वा किंवा परस्पर मिले हुए विधा और कर्मापेक्षाया उत केवलाया एवं कर्म दोनोंसे, (४) अथवा कर्मकी
| अपेक्षा रखनेवाली विद्यासे, (५) विद्याया इति ?
या केवल विद्यासे ही ? तत्र केवलेभ्य एव कर्मभ्यः उनमें [पहला पक्ष यह है कि] कर्मणां मोक्ष- स्यात् । समस्तवे- कवल कमास ही परम श्रेयकी प्राप्ति साधनत्वनिरासः दार्थज्ञानवतः कर्मा
हो सकती है, क्योंकि "द्विजातिको
रहस्यके सहित सम्पूर्ण वेदका ज्ञान धिकारात् । “वेदः कृत्लोऽधि- प्राप्त करना चाहिये" ऐसी स्मृति गन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना"
होनेसे सम्पूर्ण वेदका ज्ञान रखने
वालेको ही कर्मका अधिकार है, और इति सरणात् । अधिगमश्च वेदका ज्ञान उपनिषद्के अर्थभूत सहोपनिषदर्थेनात्मज्ञानादिना । आत्मज्ञानादिके सहित ही हो
सकता है । “विद्वान् यज्ञ करता "विद्वान्यजते" "विद्वान्याज
है" "विद्वान् यज्ञ कराता है" यति" इति च चिदुप एव कर्म- | इत्यादि वाक्योंसे सर्वत्र विद्वान्का ही ण्यधिकारः प्रदाते सर्वत्र |
कर्ममें अधिकार दिखलाया गया
| है; तथा "जानकर कर्मानुष्ठान "ज्ञात्वा चानुष्ठानम्" इति च । | करें" ऐसा भी कहा है । कोई-कोई