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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली ३
'प्राणो वा अन्नं शरीरमन्ना- 'प्राण ही अन्न है और शरीर भालनोऽसंता- दस्' इत्यारस्याका- अन्नाद है यहाँसे लेकर आकाशपर्यन्त रित्वस्थापनम् शान्तस्य कार्यस्यै- कार्यवर्गका ही अन्न और अन्नादत्व वान्नान्नादत्वमुक्त। प्रतिपादन किया गया है। . । उक्तं नाम किं तेन ? पूर्व०कहा गया है सो इससे
क्या हुआ ? तेनैतसिद्धं भवति-कार्य- सिद्धान्ती-इससे यह सिद्ध
.. होता है कि भोज्य और भोक्ताके विषय एच भोज्यभोहत्वकृतः
"कारण होनेवाला संसार कार्यवर्गसे संसारो नत्वात्मनीति । आत्मनि ही सम्बन्धित है, वह आत्मामें नहीं तु भ्रान्त्योपचर्यते।
है; आत्मामें तो भ्रान्तिवश उसका
उपचार किया जाता है। नन्वात्मापि परमात्मनः कार्य पूर्व०-परन्तु आत्मा भी तो ततो युक्तस्तस्य संसार इति ।
! परमात्माका कार्य है । इसलिये उसे
संसारकी प्राप्ति होना उचित ही है ? न; असंसारिण एव प्रवेश- सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि प्रवेशश्रुतेः । “तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्रावि- श्रुति असंसारीका ही प्रवेश प्रति
पादन करती है । "उसे रचकर वह शत्" (तै० उ० २।६।१)
पीछेसे उसीमें प्रविष्ट हो गया" इस इत्याकाशादिकारणस्य ह्यसंसा- श्रुतिद्वारा आकाशादिके कारणरूप रिण एव परमात्मनः कार्येष्वनु- असंसारी परमात्माका ही कार्योमें प्रवेशः श्रूयते । तस्मात्कार्यान- अनुप्रवेश सुना गया है। अतः प्रविष्टो जीव आत्मा पर एव
कार्यमें अनुप्रविष्ट जीवात्मा असंसारी असंसारी। सृष्ट्वानुप्राविशदिति प्रविष्ट हो गया' इस वाक्यसे एक
| परमात्मा ही है। 'रचकर पीछेसे समानककत्वोपपत्तेश्च । सर्ग-1 ही कर्ता होना सिद्ध होता है । यदि