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________________ तैत्तिरीयोपनिषद् [ 'वल्ली १ भावप्रतियोगी ह्यभावः यथा भिन्नोऽपि भावो घटपटादिभिर्विशेष्यते भिन्न इव घटभावः पटभाव इति एवं । प्रतियोगी ही 'अभाव' कहलाता है । जिस प्रकार भाव वस्तुतः अभिन्न होनेपर भी घट-पट आदि विशेषणोंसे भिन्नके समान घटभाव, पटभाव आदि रूप से विशेषित किया जाता है इसी प्रकार अभाव निर्विशेषोऽप्यभावः क्रिया- | निर्विशेप होनेपर भी क्रिया और गुणके योगसे द्रव्यादिके समान त्रिकल्पित होता है । कमल आदि न भाव उत्पलादिवद्विशेषण- पदार्थों के समान अभाव विशेषण के सहित रहनेवाला नहीं है । विशेषणयुक्त होनेपर तो वह भाव ही हो गुणयोगाद्द्रव्यादिवद्विकल्प्यते । सहभावी । विशेषणवच्चे भाव एव स्यात् । जायगा । विद्याकर्मकर्तृनित्यत्वाद्विद्या कर्मसन्तान जनितमोक्षनित्यत्व मिति चेत् ? नः गङ्गास्रोतोवत्कर्तृत्वस्य सिद्धान्ती नहीं, गङ्गाप्रवाहके समान जो कर्तृत्व है वह तो दुःखरूप है। [ अतः उससे मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती, और यदि उसीसे मोक्ष माना जाय तो भी ] कर्तृत्व की निवृत्ति होनेपर मोक्षका विच्छेद हो जायगा । अतः अविद्या, कामना कामकर्मोपादानहेतुनिवृत्तौ स्वा और कर्म - इनके उपादान कारणकी पूर्व० - विद्या और कर्म इनका कर्ता नित्य होनेके कारण विद्या और कर्मके अविच्छिन्न प्रवाहसे होनेवाला मोक्ष नित्य ही होना चाहिये । ऐसा मानें तो ? दुःखरूपत्वात् | कर्तृत्वोपरमे च मोक्षविच्छेदात् । तस्मादविद्या निवृत्ति होनेपर आत्मखरूपमें स्थित त्मन्यवस्थानं मोक्ष इति । स्वयं हो जाना ही मोक्ष है- यह सिद्ध
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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