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________________ १९२ तैत्तिरीयोपनिपद [ वल्ली२ रूपादिवत्प्रत्यक्षावुपलभ्येतेअन्तः- रूप आदि त्रिपयोंके समान अन्तः करणमें स्थित विवेक और अविवेक करणस्यौ । न हि रूपस्य प्रत्यक्ष उपलब्ध होते हैं। प्रत्यक्ष प्रत्यक्षस्य सतो द्रष्ट्रधर्मत्वम् । उपलब्ध होनेवाला रूप द्रष्टाका धर्म नहीं हो सकता । 'में मूढ हूँ, मेरी अविद्या च स्वानुभवेन रूप्यते । बुद्धि मलिन है। इस प्रकार अविधा सूढोऽहमविविक्तं मम विज्ञान- भी अपने अनुभवके द्वारा निरूपण मिति। की जाती है। तथा विद्याविवेकोऽनुभूयते । इसी प्रकार विचाका पार्यक्य भी अनुभव किग जाता है । बुद्धिमान् उपदिशन्ति चान्येभ्य आत्मनो लोग दूसरोंको अपने ज्ञानका उपदेश किया करते हैं । तथा दूसरे लोग विद्याम् । तथा चान्येऽवधारयन्ति। भी उसका निश्चय करते हैं । अतः तस्मान्नामरूपपक्षस्यैव विद्याविद्ये विद्या और अविद्या नाम-रूप पक्षके नामरूपे च नात्मधर्मों । "नाम- हा है, तथ ही हैं, तथा नाम और रूप आत्माके धर्म नहीं हैं, जैसा कि "जो नाम रूपयोर्निहिता ते यदन्तरा और रूपका निर्वाह करनेवाला है ता" (छा० उ० ८।१४।। तथा जिसके भीतर ये (नाम और रूप ) रहते हैं" वह ब्रह्म है, १) इति श्रुत्यन्तरात् । ते च इस अन्य श्रुतिसे सिद्ध होता है । पुनर्नामरूपे सवितर्यहोरात्रे इव, वे नाम-रूप भी सूर्यमें दिन और रात्रिके समान कल्पित ही हैं, कल्पिते न परमार्थतो विद्यमाने। वस्तुतः विद्यमान नहीं हैं। __ अभेदे "एतमानन्दमयमा- पूर्व०-किन्तु ईश्वर और जीवका] | अभेद माननेपर तो "वह इस स्मानमुपसंक्रामति" (तै० उ० आनन्दमय आत्माको प्राप्त होता है" २।८१५) इति कर्मकर्दत्वा | इस श्रुतिमें जो [पुरुषका] कर्तृत्व और [आनन्दमय आत्माका] कर्मत्व बताया नुपपत्तिरिति चेत् ? है वह उपपन्न नहीं होता।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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