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अनु०८]
शारभाण्यार्थ
प्राप्तो दोपो न शक्यः परिहर्तु- यह ठीक है कि इस प्रकार प्राप्त
होनेवाला दोप निवृत्त नहीं किया मन्यतरसिंस्तृतीये या पक्षेऽदुष्टे
| जा सकता तथा उपर्युक्त दोनों ज्वधृते व्यर्था चिन्ता स्थान तु
पक्षों से किसी एकका अथवा किसी
तीसरे निर्दोप पक्षका निश्चय हो सोऽवकृत इति तदवधारणार्थ- जानेपर भी यह विचार व्यर्थ ही
होगा । किन्तु उस पक्षका निश्चय त्वादर्थवत्येवैपा चिन्ता।
तो नहीं हुआ है; अतः उसका निश्चय करनेके लिये होनेके कारण
यह विचार सार्थक ही है। सत्यमर्थवती चिन्ता शास्त्रा- पूर्व-शास्त्रके तात्पर्यका निश्चय
करनेके लिये होनेसे तो सचमुच विधारणार्थत्वात् । चिन्तयसि यह विचार सार्थक है, परन्तु तू तो
केवल विचार ही करता है, निर्णय च त्वं न तु निर्णयसि,
तो कुछ करेगा नहीं। किन निर्णतव्यमिति वेद- सिद्धान्ती-निर्णय नहीं करना वचनम् ?
चाहिये-ऐसा क्या कोई वेदवाक्य है ?
पूर्व0-नहीं। कथं तर्हि ?
सिद्धान्ती-तो फिर निर्णय क्यों
नहीं होगा? बहुप्रतिपक्षत्वात् । एकत्ववादी पूर्व०-क्योंकि तेरा प्रतिपक्ष त्वम् , वेदार्थपरत्वाद्, बहवो हि ||
की बहुत है । वेदार्थपरायण होनेके
कारण तू तो एकत्ववादी है किन्तु नानात्ववादिनो वेदवाह्यास्त्व- तेरे प्रतिपक्षी वेदबाह्य नानात्ववादी
| बहुत हैं । इसलिये मुझे सन्देह है मातपक्षा। अता ममाशका न कि तू मेरी शङ्काका निर्णय नहीं निर्णेण्यसीति ।
कर सकेगा। ... एतदेव मे वस्त्ययनं यन्मा- सिद्धान्ती-तूने जो मुझे बहुत-से .