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अनु०१]
शाङ्करभाष्यार्थ
स्मृ० ११) इत्यादिश्रुतिस्मृति- प्राप्त होता है ]" इत्यादि सैकड़ों शतेभ्यः ।..
श्रुति-स्मृतियोंसे अवशिष्ट कर्मके
सद्भावकी सिद्धि होती ही है। इष्टानिष्टफलानामनारब्धानां पूर्व०-इष्ट और अनिष्ट दोनों
प्रकारके फल देनेवाले सञ्चित कर्मोंक्षयार्थानि नित्यानीति चेत् १ का क्षय करनेके लिये ही नित्यकर्म
हैं-ऐसी बात हो तो? नअकरणे प्रत्यवायश्रव- सिद्धान्ती नहीं, क्योंकि उन्हें
न करनेपर प्रत्यवाय होता है-ऐसा णात् । प्रत्यवायशब्दो ह्यनिष्ट- सुना गया है । 'प्रत्यवाय' शब्द
अनिष्टका ही सूचक है। नित्यविपयः। नित्याकरणनिमित्तस्य कर्मोके न करनेके कारण जो
आगामी दुःखरूप प्रत्यवाय होता है प्रत्यवायस्य दुःखरूपस्यागामिनः |
उसका नाश करनेके लिये ही परिहारार्थानि नित्यानीत्यभ्युप- नित्यकर्म हैं-ऐसा माना जानेके
कारण वे सञ्चित कोंके क्षयके लिये गमान्नानारब्धफलकर्मक्षयार्थानि नहीं हो सकते । यदि नामानारब्धकर्मक्षया- और यदि नित्यकर्म, जिनका
फल अभी आरम्भ नहीं हुआ है उन र्थानि नित्यानि कर्माणि तथा- | कर्मोके क्षयके लिये हों भी तो भी प्यशुद्धमेव क्षपयेयुर्न शुद्धम् ।
| वे अशुद्ध कर्मका ही क्षय करेंगे;
शुद्धका नहीं; क्योंकि उनसे तो विरोधाभावात् । न हीएफलस्य उनका विरोध ही नहीं है । जिनका
फल इष्ट है उन कर्मोंका तो शुद्धकर्मणः शुद्धरूपत्वान्नित्यैर्विरोध होने के कारण नित्यकर्मोंसे
विरोध होना सम्भव ही नहीं है। उपपद्यते । शुद्धाशुद्धयोहि विरो
विरोध तो शुद्ध और अशुद्ध कर्मोका धो युक्तः।
। ही होना उचित है।