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________________ अनु० ८ ] युक्तो निर्देष्टुम् । परमात्मविज्ञानं च विवक्षितम् । तस्मात्पर एव शाङ्करभाष्यार्थ निर्दिश्यते ' स एक:' इति । नन्वानन्दस्य मीमांसा प्रकृता तस्या अपि फलमुपसंहर्तव्यम् । 1 अभिन्नः स्वाभाविक आनन्दः परमात्मैव न विषयविपयि संबन्धजनित इति । ननु तदनुरूप एवायं निर्देशः ' स यश्चायं पुरुषे यश्चासावादित्ये स एकः' इति भिन्नाधिकरणस्थ विशेषोपमर्देन । नन्वेवमप्यादित्यविशेपग्रहण मनर्थकम् । नानर्थकम्, उत्कर्षापकर्षापोहार्थत्वात् । द्वैतस्य हि मूर्तामूर्तलक्षणस्य पर उत्कर्षः सवि १८१ 1 पुरुष ] का अकस्मात् निर्देश करना उचित नहीं है । यहाँ परमात्माका विज्ञान वर्णन करना ही अभीष्ट है; इसलिये 'वह एक है' इस वाक्यसे परमात्माका ही निर्देश किया जाता है । शंका- यहाँ तो आनन्दकी मीमांसाका प्रकरण है, इसलिये उसके फलका उपसंहार भी करना ही चाहिये, क्योंकि अखण्ड और खाभाविक आनन्द परमात्मा ही है, वह विपय और विपयीके सम्बन्धसे होनेवाला आनन्द नहीं है । मध्यस्थ--‘जो आनन्द इस पुरुषमें है और जो इस आदित्यमें है वह एक है' इस प्रकार भिन्न आश्रयोंमें स्थित विशेषका निराकरण करके जो निर्देश किया गया है वह तो इस प्रसंगके अनुरूप ही है । शंका- किन्तु, इस प्रकार भी 'आदित्य' इस विशेष पदार्थका ग्रहण करना व्यर्थ ही है । समाधान - उत्कर्ष और अपकर्षका निषेध करनेके लिये होनेके कारण यह व्यर्थ नहीं है। मूर्त और अमूर्त्तरूप द्वैतका परम उत्कर्ष सूर्यके अन्तर्गत अभ्यन्तर्गतः स चेत्पुरुपगत- | है; वह यदि पुरुपगत विशेपके वाघ
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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