SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनु० ८ ] शाङ्करभाष्यार्थ १७३ उस इस ब्रह्मके आनन्दकी यह तस्यास्य ब्रह्मण आनन्दस्यैषा मीमांसा विचारणा ब्रह्मानन्दश - वह मीमांसा - विचारणा है । उस लोचनम् भवति । किमान आनन्दकी क्या बात विचारणीय है, इसपर कहते हैं— 'क्या न्दस्य मीमांस्यमित्युच्यते । आनन्द लौकिक सुखको भाँति किमानन्दो विपयविपयिसंबन्ध - विपय और विपयको ग्रहण करनेंजनितो लौकिकानन्दवदाहोखित् । वालेके सम्बन्धसे होनेवाला है अथवा स्वाभाविक इत्येवमेपानन्दस्य स्वाभाविक ही है ?' इस प्रकार यही उस आनन्दकी मीमांसा है । मीमांसा । बुद्धिगम्य शक्यते । तत्र लौकिक आनन्दो बाह्या- उसमें जो लौकिक आनन्द बाह्य ध्यात्मिक साधनसंपत्तिनिमित्त और शारीरिक साधन-सम्पत्तिके कारण उत्कृष्ट गिना जाता है उत्कृष्टः । स य एप निर्दिश्यते ब्रह्मानन्दके ज्ञानके लिये यहाँ ब्रह्मानन्दानुगमार्थम् । अनेन हि उसीका निर्देश किया जाता है । प्रसिद्धेनानन्देन व्यावृत्तविषय | इस प्रसिद्ध आनन्दके द्वारा ही जिसकी बुद्धि विपयोंसे हटी हुई आनन्दोऽनुगन्तुं है उस ब्रह्मवेत्ताको अनुभव होनेवाले आनन्दका ज्ञान हो सकता है । लौकिकोऽप्यानन्दो ब्रह्मानन्दलौकिक आनन्द भी ब्रह्मानन्दका स्यैव मात्रा अविद्यया तिरस्क्रिय- ही अंश है। अविद्यासे विज्ञानके माणे विज्ञान उत्कृष्यमाणायां | तिरस्कृत हो जानेपर और अविद्याका चाविद्यायां ब्रह्मादिभिः कर्म- | उत्कर्ष होनेपर प्राक्तन कर्मवश विपयादि साधनों के सम्बन्धसे ब्रह्मा वशाद्यथाविज्ञानं विषयादिसा- | आदि जीवोंद्वारा अपने-अपने विज्ञानाधनसंबन्धवशाच विभाव्यमानश्च नुसार भावना किया जानेके कारण लोकेऽनवस्थितो लौकिकः संप- ही वह लोकमें अस्थिर और लौकिक
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy