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________________ अनु०६] शाङ्करभाष्यार्थ कार्यान्तरमेव स्थादिति चेत् । पूर्व०-किसी अन्य कार्यमें ही प्रवेश किया यदि ऐसा मानें तो ? तदेवानुनाविशदिति जीवात्मरूपं अर्थात् 'तदेवानुप्राविशत्' इस श्रुतिके अनुसार जीवात्मारूप कार्य कार्य नामरूपपरिणतं कार्यान्तर- नाम-रूपमें परिणत हुए किसी अन्य कार्यको ही प्राप्त हो जाता है यदि मेवापद्यत इति चेत् ? ऐसी बात हो तो? न; विरोधात् । न हि घटो सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि इससे विरोध उपस्थित होता है। एक घड़ा घटान्तरमापद्यते । व्यतिरेक- किसी दूसरे घड़ेमें लीन नहीं हो जाता । इसके सिवा [ऐसा माननेश्रुतिविरोधाच । जीवस्य नाम- | से ] व्यतिरेक श्रुतिसे विरोध भी होता है । [ यदि ऐसा मानेंगे तो] रूपकार्यव्यतिरेकानुवादिन्यःजीव नाम-रूपात्मक कार्यसे व्यति रिक्त ( भिन्न ) है-ऐसा अनुवाद श्रुतयो विरुध्येरन् । तदापत्तौ करनेवाली श्रतियोंसे विरोध हो जायगा और ऐसा होनेपर उसका मोक्षासंभवाच्च । न हि यतो मोक्ष होना भी असम्भव होगा। मुच्यमानस्तदेवापद्यते । न हि क्योंकि जो जिससे छूटनेवाला होताहै वह उसीको प्राप्त नहीं हुआ करता;* श्रृंखलापत्तिर्वद्धस्य तस्करादेः। जंजीरसे वधे हुए चोर आदिका जंजीररूप हो जाना सम्भव नहीं है। बाह्यान्तभेदेन परिणतमिति | पूर्व०-वही बाह्य और आन्तरके भेदसे परिणत हो गया, अर्थात् चेत्तदेव कारणं ब्रह्म शरीराधा- | वह कारणरूप ब्रह्म ही शरीरादि धारत्वेन तदन्तर्जीवात्मनाघेय | आधाररूपसे बाह्य और आधेय | जीवरूपसे उसका अन्तर्वर्ती हो । त्वेन च परिणतमिति चेत् १ . गया यदि ऐसा माने तो ? * अर्थात् जीवको तो नाम-रूपात्मक कार्यसे मुक्त होना इष्ट है, फिर वह उसीको क्यों प्राप्त होगा?
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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