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अनु० ६ ]
शाङ्करभाप्यार्थ
तत्रासदेव ब्रह्मेत्याशङ्कयते ।
कस्मात् १ यदस्ति तद्विशेषतो
गृह्यते यथा घटादि । यन्नास्ति
तनोपलभ्यते यथा शशविषाणा
दि । तथा नोपलभ्यते ब्रह्म । तस्माद्विशेषतोऽग्रहणान्नास्तीति ।
तन्नः आकाशादिकारणत्वा
ब्रह्मणः । न नास्ति ब्रह्म । करमा
ब्रह्म ।
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इसमें यह आशंका की जाती है कि ब्रह्म असत् ही है । ऐसा क्यों है ? क्योंकि जो वस्तु होती है वह विशेषरूपसे उपलब्ध हुआ करती है; जैसे कि घट आदि । और जो
नहीं होती उसकी उपलब्धि भी नहीं होती; जैसे- शशशृगादि । इसी प्रकार ब्रह्मकी भी उपलब्धि नहीं होती । अतः विशेषरूपसे ग्रहण न किया जानेके कारण वह है ही नहीं ।
जातं गृह्यते । यस्माच्च जायते
ऐसी बात नहीं है, क्योंकि ब्रह्म आकाशादिका कारण है । ब्रह्म नहीं है-ऐसी बात नहीं है । क्यों नहीं दाकाशादि हि सर्व कार्य ब्रह्मणो है ? क्योंकि ब्रह्मसे उत्पन्न हुआ आकाशादि सम्पूर्ण कार्यवर्ग देखने में आता है । जिससे किसी वस्तुका जन्म होता है वह पदार्थ होता ही है-ऐसा लोकमें देखा गया है; जैसे कि घट और अङ्कुरादिके कारण मृत्तिका एवं बीज आदि । अतः आकाशादिका कारण होनेसे है ।
किंचिचदस्तीति दृष्टं लोके; यथा
घटाङ्कुरादिकारणं मृद्रीजादि । तस्मादाकाशादिकारणत्वादस्ति
न चासतो जातं किंचिद्
लोकमें असत्से उत्पन्न हुआ कोई भी पदार्थ नहीं देखा जाता । यदि नाम-रूपादि कार्यवर्ग असत्से
गृह्यते लोके कार्यम् । असतश्चेन्ना
मरूपादि कार्य निरात्मकत्वा- | उत्पन्न हुआ होता तो वह निराधार
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