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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली २
न कर्माणि च तनुते । असा चिन्तार करता
ही
विज्ञानं यज्ञं तनुते । विज्ञान- विज्ञान याका चिन्तार करता
है अर्थात् विज्ञानवान पुरुष ही विशानमयो- वान्हि यज्ञं तनोति . है
: श्रद्धादि पूर्वक यन्का अनुष्ठान करता पासनम् श्रद्धादिपूर्वकम् । है । अतः यतानुष्टानमें विज्ञानका अतो विज्ञानस्य कर्तृत्वं तनुत कर्तृन्च । और तनुते-इसका भात्र इति कर्माणि च तनुते । यसा- यह है कि वहीं कांका भी द्विज्ञानकर्तृकं सर्व तस्मायुक्तं क्योंकि सब कुछ विज्ञानका ही विज्ञानमय आत्मा ब्रहोति । किया हुआ है। इसलिये विज्ञानमय
आत्मा ब्रम है। ऐसा कहना ठीक किं च विज्ञानं ब्रह्म सर्वे देवा ही है। यही नहीं, इन्द्रादि सम्पूर्ण इन्द्रादयो ज्येष्ठं प्रथमजत्वात्सर्व
। देवगग विज्ञानवामकी, जो गवसे
पहले उत्पन्न होनेवाला होनसे प्रवृत्तीनांवा तत्पूर्वकत्वात्प्रथमजं ज्येष्ठ है अथवा समस्त वृत्तियां
विज्ञानपूर्वक होनेके कारण जो विज्ञानं ब्रह्मोपासते ध्यायन्ति |
प्रथमोत्पन्न है, उस विज्ञानरूप नमकी तसिन्विज्ञानमये लण्यभि- उपासना अर्थात् ध्यान करते हैं।
तात्पर्य यह है कि वे उस विज्ञानमय मानं कृत्वोपासत इत्यर्थः । ब्रह्ममें अभिमान करके उसकी तस्मात्ते महतो ब्रह्मण उपा..
. उपासना करते हैं । अतः वे उस
पा महलकी उपासना करनेसे ज्ञान सनाज्ज्ञानेश्वर्यवन्तो भवन्ति । और ऐश्वर्यसम्पन्न होते हैं । __ तच्च विज्ञानं ब्रह्म चेद्यदि वेद उस विज्ञानरूप व्रतको यदि विजानाति न केवलं चेदैव तस्सा- जान ले केवल जान ही न ले बल्कि ब्रह्मणश्चेन्न प्रमायति बाह्येष्वेवा- |
। यदि उससे प्रमाद भी न करे; बात्य
| अनात्म पदार्थोंमें आत्मबुद्धि की नात्मस्वात्मभावितत्वात्प्राप्तं वि- हुई है, उसके कारण विज्ञानमय - ज्ञानमये ब्रह्मण्यात्मभावनायाः । ब्रह्ममें की हुई आत्मभावनासे प्रमाद