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________________ अनु०२] शाङ्करभाष्यार्थ जातान्यन्नेन वर्धन्त इत्युपसंहा- | होनेपर अन्नसे ही वृद्धिको प्राप्त होते हैं-यह पुनरुक्ति उपासनाके उपरार्थ पुनर्वचनम् । | संहारके लिये है। इदानीमन्ननिर्वचनमुच्यते- अब 'अन्न' शब्दकी व्युत्पत्ति कही जाती है जो प्राणियोंद्वारा अग्नशम्द- अद्यते भुज्यते चैव 'अद्यते'--खाया जाता है और जो निर्वचनम् यद्धतैरन्नमत्ति, च स्वयं भी प्राणियोंको 'अत्ति' खाता भतानि स्वयं तस्साद्ध - | है, इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंका भोज्य और उनका भोक्ता होनेके कारण ज्यमानत्वाद्भूतभोक्तृत्वाचान्न | | भी वह 'अन्न' कहा जाता है। तदुच्यते । इतिशब्दः प्रथमकोश- इस वाक्यमें 'इति' शब्द प्रथम परिसमाप्त्यर्थः। कोशके विवरणकी परिसमाप्तिके लिये है। अन्नमयादिभ्य आनन्दमया- अनेक तुपाओंवाले धानोंको अन्नमयकोश- न्तेश्य आत्मम्यो- तुपरहित करके जिस प्रकार चावल निरासः ऽभ्यन्तरतमं ब्रह्म अन्नमयसे लेकर आनन्दमय कोश निकाल लिये जाते हैं उसी प्रकार विद्यया प्रत्यगात्मत्वेन दिदशे- पर्यन्त सम्पूर्ण शरीरोंकी अपेक्षा यिपुः शास्त्रमविद्याकृतपञ्चकोशा-1 आन्तरतम ब्रह्मको विद्याके द्वारा अपने पनयनेनानेकतुपकोद्रववितुपी- प्रत्यगात्मरूपसे दिखलानेकी इच्छा वाला शास्त्र अविद्याकल्पित पाँच करणेनेव तदन्तर्गततण्डुलान् कोशोंका बाध करता हुआ 'तस्माद्वा प्रस्तौति तस्माद्वा एतस्मादन्नरस- एतस्मादन्नरसमयात्' इत्यादि वाक्यमयादित्यादि। से आरम्भ करता हैतसादेतस्माद्यथोक्तादन्नरस- । उस इस पूर्वोक्त अन्नरसमय | पिण्डसे अन्य यानी पृथक् और प्राणमयकोश- मयात्पिण्डादन्यो । उसके भीतर रहनेवाला आत्मा, जो निर्वचनम् व्यतिरिक्तोऽन्तरो- अन्नरसमय पिण्डके समान मिथ्या ऽभ्यन्तर आत्मा पिण्डवदेव मिथ्या ही आत्मारूपसे कल्पना किया. हुआ
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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