SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शिशिर ऋतु मे वर्द्धमान नगे बदन खुले मे ध्यान करते । ग्रीष्म ऋतु मे उत्कुटुक जैसे कठोर आसन मे बैठकर आताप-सेवन करते। निरोग होते हुए भी वे मिताहारी थे। रसो मे आसक्ति नहीं थी। आहार न मिलने पर भी शान्तमुद्रा और सन्तोष भाव रखते थे। शरीर के प्रति उनकी निरीहता रोमाचकारी थी। रोग की चिकित्सा नहीं करते थे। आखो मे किरकिरी गिर जाती तो उसे नहीं निकालते थे। शरीर मे खाज आती हो उसे नहीं खुजलाते थे। नींद अधिक नहीं लेते थे। नींद सताती तो चक्रमण कर उसे दूर करते थे। इन्द्रियो के विषय मे वे विरक्त रहते थे। किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रखते, उनमे उत्सुकता नहीं रखते थे। वे अनेक तरह के आसन लगाकर निर्विकार बहुविध ध्यान ध्याते थे। चलते समय आगे की पुरुष-प्रमाण भूमि पर दृष्टि रखते थे। वे १५-१५ दिन, महीनेमहीने उपवास किया करते थे। दीक्षा के बारहवे वर्ष मे वे निरन्तर छट्टभक्त (दो-दो दिन का उपवास) करते रहे। वर्द्धमान ने बारह वर्ष व्यापी दीर्घ साधना-काल मे धर्म-प्रचार, उपदेश-कार्य नहीं किया, न शिष्य मुडित किये और न उपासक बनाए, परन्तु अबहुवादी मौन साधना की। उन्होने अपना सारा समय जागरूकतापूर्वक आत्मशोधन मे लगाया। आत्म-साक्षी पूर्वक सयम धर्म का पालन किया। मुनि जीवन के १३ वे वर्ष मे वर्द्धमान जभियग्राम नगर के बाहर ऋजुबालिका नदी के उत्तरी किनारे, श्यामाक गाथापति की कृषण भूमि मे व्यावृत नामक चैत्य के अदूर-समीप उसके ईशान कोण की ओर शाल वृक्ष के नीचे गोदोहिका आसन मे स्थित होकर सूर्य के ताप मे आताप ले रहे थे। उस दिन उनका दो दिन का उपवास था। ग्रीष्म ऋतु थी। वैशाख का महीना था। शुक्ला दशमी का दिन था। छाया पूर्व की ओर ढल चुकी थी और अन्तिम पौरुषी का समय था। उस निस्तब्ध शान्त वातावरण मे आश्चर्यकारी एकाग्रता के साथ वर्द्धमान शुक्लध्यान मे लवलीन थे। ऐसे समय विजय नामक
SR No.034105
Book TitleShraman Sukt
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2000
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy