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________________ वचन-साहित्य-परिचय होता है। दीक्षा में तीन प्रकारकी दीक्षाएं हैं। पहली क्रियादीक्षा, दूसरी मांत्री दीक्षा और तीसरी वेद्यादीक्षा । क्रियादीक्षासे इष्टलिंग हथेलीपर दिया जाता हैं । मांत्रीदीक्षासे प्राणलिंग और वेद्यादीक्षा से भावलिंगको प्राण और आत्मामें प्रतिष्ठित किया जाता है। लिंगग्रहण करनेके वाद वीरशैवको नियमितरूपसे, नित्य, त्रिकाल शुचिर्भूत होकर लिंगपूजा करनी चाहिए । यह अनिवार्य धर्मकृत्य है । इष्टलिंग शिलालिंग ही सर्वोत्तम माना गया है। लिंगग्रहण करने के बाद अपने इष्टलिंगके अलावा अन्य लिंगकी पूजा नहीं करनी चाहिए। लिंगग्रहणके वाद जाति, कुल, लिंग आदि भेद भी नहीं माना जाता। लिंग धारण करनेवाला प्रत्येक वीरशैव प्रत्यक्ष शिवस्वरूप है, ऐसी भावना होनी चाहिए । उनको किसी प्रकारका शौचाशौच तथा स्पर्शास्पर्श दोष नहीं लग सकता। जो लिंग धारण करता है वह वीरशैव है । जिसके गलेमें लिंग नहीं होता, वह भवि' कहलाता है । वीर शैवको किसी 'भवि' के साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहिए । यदि प्रत्यक्ष माता-पिता भी 'भवि' हों तो उनसे संबंध-विच्छेद करना चाहिए। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पतिसे अनन्य और एकनिष्ठ होती है वैसे ही प्रत्येक वीरशैव अपने इष्टलिंगसे एकनिष्ठ होता है। इस संप्रदायमें लिंगको परमात्माका प्रतीक माना जाता है । साधकके जीवन में लिंग अत्यंत महत्वपूर्ण है । और जो महत्व लिंगका है वही महत्व गुरु और जंगम का है । शिवबुद्धिसे गुरु और जंगम-पूजा करनी चाहिए, क्योंकि परमात्मा अकाय है । उसने कहा है, 'भक्त काय मम काय ।' इसलिए इन लोगों में गुरु तथा जंगमोंका पादोदक और प्रसादग्रहणकी परिपाटी है । इस आचारमें उच्छिष्टादि दोष न माननेकी धर्माज्ञा है । सब प्रकारका धर्म-कार्य करनेसे पहले रुद्राक्ष और भस्मधारण करना अनिवार्य है तथा पडक्षरी अथवा पंचाक्षरी जाप भी। इस संप्रादायमें अष्टावरणके साथ पंचाचारका भी महत्व है। पंचाचारसे तात्पर्य 'सदाचार', 'गणाचार', 'नित्याचार', 'शिवाचार' और 'लिंगाचार' से है। यम-नियमादिका पालन, मांस-मद्यादिका त्याग तथा शुद्ध सात्विक कर्म, सदाचार है । सत्य, धर्म, आदिके पालनको गणाचार कहा गया है । आवश्यकता पड़ी तो अपने जीवनका वलिदान करके भी गणाचारका पालन करना चाहिए, ऐसी धर्माज्ञा है। गुरु, लिंग और जंगमपूजा, जीविकोपार्जनके लिए नियमित कायक, 'दासोहम्' आदि नित्यकर्म नित्याचार कहलाता है । लिंगधारीको शिवरूप मानकर शिवभावसे उनका सत्कार करना, उनका आदरातिथ्य करना शिवाचार है । निष्ठापूर्वक लिंग-धारण, लिंगपूजा आदि लिंगाचार है। तन-मन आदिको त्रस्त करनेवाले व्यर्थके त, उपवास, नियमादि न रखनेका शिवका स्पष्ट धर्मादेश है । अष्टावरण-पंचाचार आदिसे वीरशैव साधक साधना-सोपानकी एक-एक
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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