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________________ ওন वचन-साहित्य-परिचय भक्त-स्थलके लक्षण संपूर्ण श्रद्धासे, भक्तिपूर्वक, गुरु, लिंग और जंगम की पूजा करना, तथा गुरुके प्रादेशानुसार शिवाचार करना है । महेश स्थलमें निष्ठा अर्थात् वढ़ता, तथा गुरुके शासनानुसार आचरण पावश्यक लक्षण हैं । इन दोनों स्थलोंमें गुरुपूजा, लिंग पूजा, जंगम पूजा, भस्म धारण, रूद्राक्ष धारण, लिंग धारण गुरु जंगमोंका पादोदक सेवन, गुरु जंगमोंका प्रसाद ग्रहण, यह अष्टावरण नितांत' श्रावश्यक हैं। वचनकारोंके कथनानुसार गुरु ज्ञानकी मूर्ति है । लिंग परमात्मा- ' का प्रतीक है । जंगम साक्षात्कारी है । जंगम साक्षात्कारी और पूर्ण भक्त होता है । भस्म अंतर-वाहकी शुद्धि करनेमें समर्थ है। रुद्राक्ष ज्ञान का चिह्न है। पादोदक शिवानुग्रहका द्योतक है तो प्रसाद ग्रहण सर्वापरणका। वचनकारोंने यह भी स्पष्ट कहा है कि परंपरानुसार इसका अंधानुकरण नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा किया गया तो वह दंभाचरण होगा। इस लिए साधकको कुछ भी करते समय सोच-समझकर, ठीक तरह समझकर, सतत अपना ध्येय आंखोंके सामने रखते हुए अष्टावरणका आचरण करना चाहिए। ऐसा करनेसे गुरु. प्रत्यक्ष ज्ञानरूप होकर अन्तःकरण में प्रवेश करेगा। लिंग प्रत्यक्ष होकर साक्षात्कार होगा । जीवके अंग गुण नष्ट होंगे। लिंग गुणोंका विकास होता जाएगा। और अंतमें ऐक्य होगा। त्यागांगकी तरह भोगांगके भी दो स्थल हैं। एक 'प्रसादि', दूसरा 'प्राणलिंगी'। शिवार्पित ही स्वीकार करना, तथा किसी भी स्थितिमें शिवार्पित प्रसादको अस्वीकार न करना प्रसादिके मुख्य लक्षण हैं । जो कुछ मिलता है वह सब ईश्वरार्पण करके उसको प्रसादरूप ग्रहण करनेसे विषय-वासना तथा सूक्ष्म आसक्तिका भी क्षय होता जाएगा। इससे धीरे-धीरे अंग गुणोंका भी क्षय होगा। जैसे-जैसे अंग गुणों का क्षय होता जाएगा यह अनुभव होगा कि लिंग ही मेरा प्राण है, लिंग और मेरा प्राण भिन्न नहीं हैं । यह अनुभव ही 'प्रारलिंगी" का अनुभव है। तब साधक भोगांगके प्राणलिंगी स्थल में पहुंचेगा। इससे प्राणलिंग और शिवाद्वैतका बोध होना प्रारम्भ होगा। यह भाव दृढ़ होगा । जैसेजैसे यह शिवाद्वैत भाव हढ़ होता गया, भोगांग योगांगमे परिवर्तित होता जाएगा। योगांग में भी दो स्थल हैं । उनको 'शरण' और 'ऐक्य स्थल' कहते हैं । शिवातके अनुभवसे ईष्णायका नाश होगा। ईष्णायका अर्थ वित्तेष्णा, पुत्रेण्णा तथा लोकेष्णा है। इनका अतिक्रमण करके केवल शिवध्यानमें रत रहना ही शरणस्थल है । यही शरणस्थलका मुख्य लक्षण है । इसके बाद सदैव शिवलिंगमें ऐक्यावस्थाका अनुभव करना रह जाता है। इस ऐक्यावस्थाके अनुभवको ऐक्यस्थल कहते हैं । यहाँ साधकके अंग-गुण शून्य हो जाते हैं ! यही वचनकारोंका 'शून्यसंपादन' है । यही आत्यंतिक ध्येय है । इसको प्राप्त करनेके
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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