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________________ साम्प्रदायिक स्वरूप अथवा षट्स्थल-शास्त्र . अत्यंत सावधान होकर किसी उत्तमांगमें लिंग धारण करना चाहिए लिंग धारण और लिंगपूजन अष्टावरणमें एक आवरण है । शिवागमोंमें शिवने कहा है, 'मेरालिंग धारण किया हुआ भक्त साक्षात् मैं ही होता हूँ।' (पा० ५० ३ श्लो० ६२)। ___भूतदया, शिवभक्ति, सर्वत्र शिवदर्शन, लिंगधारण, इसके लिए कहा गया है, 'मुक्तिकोशाः चतुर्विधा' (पा० प० २. श्लो० ३२-३४)। लिंगके विषय में कहा गया है, किसी भी हालतमें इष्ट लिंगका त्याग नहीं करना चाहिए, उसकी पूजा में खंड नहीं पड़ना चाहिए । यदि कभी इप्ट लिंग खो गया और, वह फिरसे नहीं मिल सका, अथवा भिन्न हो गया तो प्राणत्याग करना चाहिए (पा प० २ श्लो० १०३) (सू० प० ७ श्लो० ६२)। कुछ लोगोंकी यह मान्यता है कि उपरोक्त बात केवल "निराभार" वीरशैवोंके लिए है । निराभारका अर्थ है, जिसपरसे पाप-पुण्यका भार उतर चुका हो । क्योंकि लिंग ही पति है और भक्त ही पत्नी है । (सू० प० ७ श्लो० ६१) । अपनी हथेलीका पीठ बनाकर लिंगपूजा करनी चाहिए। अहिंसा, इन्द्रिय जय, सर्वभूतदया, क्षमा, ध्यान, तप, ज्ञान, सत्य इन आठ फूलोंसे लिंग पूजा करनी चाहिए। इससे शिवागमकारोंके नैतिक जीवनकी उच्च कल्पना, उनके चारित्र्य तथा आध्यात्मिक ध्येयवादका परिचय मिलता है। (१२) 'त्रों नमः शिवाय' यह शिव वर्णका प्रतीक है और लिंग उसका पार्थिव प्रतीक । लिंग और मंत्रमें कोई भेद नहीं है । पंचाक्षर लिंगमय है और लिंग पंचाक्षरमय । (पा० प० ७ श्लो० १०१)। लिंग, मंत्र और सदाशिव एक हैं। (सू० प०६३लो० ५०-५१)। मंत्र के दो रूप हैं, प्रणव रहित और प्रणव सहित। कुछ आगमकारोंका आग्रह है कि स्त्री तथा शूद्रोंको प्रणव रहित पंचाक्षरीकी दीक्षा दी जाय । प्रणव रहित मंत्र 'पंचाक्षरी' कहलाता है और प्रणव सहित 'षडक्षरी' । आगमकारों का यह स्पष्ट मत है कि पंचाक्षरी भी षडक्षरीके समान है । 'पंचाक्षरी' सभी मंत्रों में वैसे ही श्रेष्ठ है जैसे नदियों में गंगा, क्षेत्रोंमें काशी, तथा स्त्रियोंमें पार्वती। यह मंत्र ही देवताका रूप है । (पा० प० १ श्लो० १८०-१८१)। पूजाकी सभी क्रियाएँ मंत्रपूत होनी चाहिए । पंचाक्षरीमें मनन और सामर्थ्य दोनों हैं इसलिए वह मंत्र कहलाता है । मंत्र प्रयोगसे शिवसन्निधि होती है । · मंत्रका उच्चारण पवित्र स्थान पर तथा निर्मल, निश्चल मनसे करना चाहिए। (वातुल प० ५ श्लो० ३-८) मंत्र तीन प्रकारका होता है : (१) वाचिक, (२) उपांशु, और (३) मानस। इनमें मानस ही सर्वश्रेष्ठ है । (सू० य० ३ श्लो० ५३-५६) ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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