SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साम्प्रदायिक स्वरूप अथवा षट्स्थल-शास्त्र एक वार पार्वतीके तपसे प्रसन्न हो कर शिवने कहा, "चाहे जो वर माँग लो!" ___ पार्वतीने वर मांगा, “तेरी निरपेक्ष भक्ति के अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए" (सू० ५० १०, श्लो० ५२-५३) । वीरशैव-याचार कहते समय पारमेश्वरागममें शिवजीने कहा है, "मेरी निरपेक्ष भक्ति, अनन्य पूजा, स्मरण, कीर्तन, ध्यान और मेरे गुणोंका परिशीलन ही मुख्य है ।" (प० ५० ५ श्लो० ५२-५३) । उसके अनन्तर कहा है, "अशक्तोंके लिए भक्ति-योग जैसा दूसरा पालंवन नहीं है। उन्होंने बार-बार कई स्थान पर कहा है, "शिवभक्तिसमाचरेत्' । दीक्षा देनेवाले गुरुके विषय में कहा है, 'वह शिव-भक्त और शिवज्ञानी' होना चाहिए 'मुमुक्षुको ईश्वरभक्त' होना चाहिए "मेरी भक्ति ही परमगति"२ है। मेरी विभूतियों में भक्त ही श्रेष्ठ है।" "शंकर भक्तों के शरीर में बसते हैं।" आदि ऐसे अनेक वचन आते हैं। नवविध भक्तिमें प्रात्म-निवेदन, अर्थात् आत्मसमर्पण सर्वश्रेष्ठ है । शिवार्पण भावसे जीवनको सब क्रियाएँ करनी चाहिए । जो कुछ भोगते हैं वह सव शिवप्रसाद मान कर भोग करना चाहिए । जाप, स्मरण, भजनादि भी शिवार्पण भावसे करना चाहिए । (पा०प० २२ श्लो० ३८-३६) । शिवार्पणको भक्ति माना है । तथा योग, कर्म, ज्ञान आदिका भी विवेचन किया है। आगमकारों की दृष्टि से सकर्मियोंके लिए कर्म और निष्कर्मियोंके लिए ज्ञान है । (पा०प० २२ श्लो० ६५)। कर्म में सकाम और निष्काम, दो भेद किये हैं। निष्काम कर्मको ज्ञानका आधार माना है । (सू० प० ६ श्लो० ३५) । जो पाप पुण्य के परे जाता है वह 'निराभारी' कहलाता है । कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है। हजार अश्वमेधसे भी सम्यक्ज्ञान श्रेष्ठ है । जिसका चित्त 'अंतनिविष्ठ' अथवा अन्तर्मुख होता है उसको व. का बंधन नहीं होता। (सू० ५० ६ श्लो० ४२-४४) । आगमोंमें अष्टांग-योगके स्थान पर भक्ति, वैराग्य, अभ्यास, ध्यान, एकांत, भिक्षाटन, लिंगपूजा, शिवस्मरण, यह 'अष्टांग युनित' कही है । (पा० १० १० श्लो० ५५-५६) देवीकालोत्तर भागमले ज्ञानाचार पटलमें कहा है कि चित्त जब निरालंब हो कर मनकी अवस्थाओंरो परे रहता है तो वह 'मुनत स्थिति प्राप्त करता है (श्लो० ४१) प्रतीत होता है पातंजल योगका 'चित्त तत्तिनिरोधः जाला रेश यहीं दूसरे शब्दों में कहा गया है । १. गुगुहारीश्वरे गातः । २. गणितः परमागतिः । ३. रागोलिगद नितीन गत परः। *. नायक शंकरः।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy