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________________ वचन-साहित्य-परिचय .. वचनकारोंके शुद्ध, उदार और मुक्त धामिक आचार-विचारके कारण. कर्नाटकके अनेक मत, संप्रदाय, तथा पंथोंने ऊँच-नीचके भावको त्याग कर उनका अनुकरण किया। वचनकारोंने भी अपने संप्रदायमें आये हुए लोगोंको विना किसी भेद-भावके धर्म-बंधू माना। उनके साथ समानताका व्यवहार किया। पुरुपोंकी तरह देवियोंका भी समादर किया । देवियां भी वचनकार बनीं । वहां धर्म के नामपर किसी प्रकारका भेद-भाव नहीं था । स्त्री-पुरुप-भेद भी नहीं था। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि स्त्री और पुरुषों में कोई भेद है ही नहीं। जैसे शरीरमें भिन्नता है वैसे स्वभाव-धर्म में भी भिन्नता हो सकती है । किंतु इसी कारण धार्मिक जीवन में उन्हें हीन मानना उचित नहीं कहा जा सकता । स्त्री जातिने व्यक्तिशः और सामूहिक रुपसे अपने कुटुंब तथा संतान के लिए जो कुछ त्याग और बलिदान किया है उसे देखते हुए उनका पावित्र्य, उनका त्याग, उनकी निष्ठा, भक्ति, सहनशीलता आदिको मुक्त कंठसे स्वीकार करना होगा। ऐसे श्रेष्ठ और गौरव पूर्ण गुणोंके ग्रागर स्त्री समुदायको मोक्षके लिए 'अनधिकृत' कहना वचनकारोंने उचित नहीं समझा। वचनकारोंने उन्हें भी नादर सप्रेम दीक्षा दी । उनको अपने विकास के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान किया। अावश्यक पथ-प्रदर्शन किया । और उन देवियोंने भी, अन्य वचनकारोंकी तरह साक्षात्कार करके अपने अभूतपूर्व अनुभवोंको शब्दों में ग्रंथ कर अमर कर दिया । ऐसी देवियों की संख्या भी कम नहीं है। उनमें उड़तडीकी 'अक्क महादेवी', मुक्तायक्क आदि कुछ नाम श्री बसवेश्वर अल्लम प्रभुके साथ लिए जाते हैं । इतना उनका महत्व है । धर्मवीरोंको शोभनेवाले महादेवी के दिव्य चरित्रके कारण उनके वचन अत्यन्त तेजस्वी बन पड़े हैं। स्त्री-सुलभ भक्ति-रसको व्यक्त करने में उनके वचन अन्य वचनकारोंके वचनोंसे अधिक सरस बन गये हैं। अनुभवपूर्ण वचन कहनेवाले इन वचनकारोंके सामूहिक व्यक्तित्वका विचार करते समय उनकी पंरपराका भी विचार करना आवश्यक है। किंतु अब तक यह अनुसंधानका ही विषय रहा है । कन्नड़में, वीरशैवोंका धर्म, उनका संप्रदाय, उनका तत्व-ज्ञान, उनकी परंपरा अादिके विपयमें इतना प्रकाशित और . अप्रकागित साहित्य भरा पड़ा है कि उसकी खोज होना अत्यावश्यक है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक और विश्लेपणात्मक दृष्टिकोणसे उसका अनुसंधान होता जाता है, नये-नये तथ्य सामने आते हैं। कभी यह मान्यता थी कि श्री बसवेश्वर ही पायवचनकार हैं। वही वीरशैव संप्रदायके संस्थापक हैं। किंतु आज वह ‘मान्यता नहीं रही। ग्राजके विद्वान मानते हैं कि इसके पहले भी वचनकार हो चुके होंगे। ऐसा माननेके लिए प्रबल कारण भी है। श्री बसवेश्वरके
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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