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________________ वचन-साहित्य-परिचय .. पंको भी क्या आवश्यकता अपने आपको जाने हुए शरण को. गुहेश्वरा (५६८) तुम्हारी पूजा करना चाहूं तो अपना शरीर ही नहीं, क्योंकि मेरा रीर ही तुम बने हो, तुम्हारा स्मरण करना चाहूं तो ज्ञान ही नहीं, भान ही नहीं क्योंकि वह ज्ञान, भान तुम बने हो अखंडेश्वरा तुममें भाग निगले कपूर-सा बना हुआ हूं। . टिप्पणी:-पूर्ण समरस ऐक्यानुभवकी स्थिति अंतिम वचनमें कही गई है। ‘परमात्माकी स्वलीलामें वह समरस भावसे विहार करता है। पानीमें धुले हुए नमकके पुतलेका सा । यही सारुप्य मुक्ति है। यही ब्रह्मानंद है। यही शिव समरसैक्य है । यही अमृलमय जीवन और शाश्वत सुख है। यही वचन साहित्यका उद्देश्य है ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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