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________________ वचन - साहित्य- परिचय - अभाव निःस्पृह हैं, धन प्राप्त होनेपर निःस्पृह नहीं, ऐसे एकांतद्रोही, गुप्तपाकी युक्तिशून्यके "प्रसन्न हो, प्रसन्न हो !" कहने से क्या सकलेश्वर प्रसन्न होगा ? (५६०) शम, दम, विवेक, वैराग्य, परिपूर्ण भाव, शांति, कारुण्य श्रद्धा, सत्य, सद्भक्ति, शिवज्ञान, शिवानंद उदय होनेपर उस महा भक्त के हृदय में -शिव वास करेगा । उसके दर्शन स्पर्शन संभाषरण से केवल मुक्ति ही प्राप्त होगी निजगुरु स्वतंत्र सिद्धलिंगेश्वरा । टिप्पणीः - बाह्यशुद्धिसे अंतःशुद्धिकी आवश्यकता अधिक है | वैसे ही भक्तके लिए चित्तशुद्धि होनी चाहिए, चारित्र्य शुद्धि होनी चाहिए। जिसके जीवनमें यह विद्यमान है उसके हृदयमें परमात्माका वास है । अव निर्मोह निरहंकार के विषयमें देखें | ( ५६१ ) शिव ही सर्वोत्तम दैवत है, काया वाचा मनसे हिंसा न करना ही धर्म है, धर्मसे प्राप्त प्राप्तव्यका स्वीकार न करना ही नियम, श्राशाका त्याग करके नि:स्पृह रहना ही तप, क्रोध छोड़कर अक्रोध रहना ही जप है, निर्वाचक रहना ही भक्ति, निर्दोष रहना ही समयाचार, यही सत्य धर्म है, शिव जानता .है, शिवकी सौगंध उरिलिंगपेद्दि प्रियविश्वेश्वरा । टिप्पणी- निर्दोष रहना समता रखना । (५६२) बाहरी फूल तोड़कर बाहरी पूजा करनेसे कोई परिणाम नहीं होता । उससे समाधान नहीं होता, किसी जीवकी हिंसा न करना ही शिवपूजा- का प्रथम पुष्प है, सव इंद्रियोंका निग्रह करना द्वितीय पुष्प, सब प्रकार के अहंकारका त्याग करके शांत रहना तृतीय पुष्प, सब प्रकारका व्यापार छोड़कर निर्व्यापार हो जाना चतुर्थ पुष्प है, दुर्भावका त्याग करके सद्भावमें स्थिर रहने के लिए प्रयास करना पंचम पुष्प, भोजन करके उपवासी रहना, भोग करके ब्रह्मचारी रहना ( अर्थात् सदैव निर्लिप्त रहने सीखना ) षष्ठ पुष्प, असत्य त्यागकर सत्यका ग्रहरण करना सप्तम पुष्प, सकल संसारसे अलिप्त रहकर शिवज्ञान संपन्न रहना अष्टम पुष्प है और इस प्रष्ट दल कमल से सहस्र पूजा करना जाननेवाला शरण तुम्हारा प्रतिबिंब ही है कूडलसंगमदेवा । टिप्पणी:- प्रष्टविध अर्चना षोडशोपचार पूजा आदिको वचनकार कोई महत्त्व नहीं देते थे । सद्गुण, सदाचार, सर्वेभूत हितरत, इसीको वह महत्व देते थे, उनके मत से भक्तोंको सद्गुणी, सच्चरित्र, सर्वभूतहितरत होतो चाहिए । (५६३) अर्चना करनेमें वेषको जानना चाहिए। पूजा करनेमें पुण्य मूर्ति होना चाहिए, लेन-देन में सर्वभूतहित होना चाहिए, ऐसे वैभवसे रहनेवालों
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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