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________________ २६४ वचन-साहित्य परिचय . . "ब्रह्मजानातीति ब्राह्मणः ।" यह वेद वाक्य जानकर ब्रह्मभूत हो जानेवाला' . ही ब्राह्मण है कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुना। (५२६) गुणोसे ब्राह्मण हुए विना अगणित अभ्याससे ब्राह्मण नहीं वन सकता । मलत्रयोंका अतिक्रमण करना चाहिए, अतिक्रमण करना चाहिए सृष्टि स्थिति लयका सर्पहारकपिलसिद्ध मल्लिकार्जुना। । टिप्पणीः-जाति, गुण, कर्मानुसार है, न कि जन्मसे । (५२७) वेदशास्त्रके लिए ब्राह्मण बने, वीर वितरण के कारण क्षत्रिय बने, हर वातमें पांच छः देखनेवाले वैश्य हुए, और हल चलानेवाले शूद्र बने । इस प्रकार जाति कुल गोत्र बने । जाति गोत्रमें नीच, श्रेष्ठ, दो कुलोंके अतिरिक्त अन्य अनेक जाति कुल नहीं है । ब्रह्म जाननेसे ब्राह्मण, सर्वजीव हित कर्मके आधीन होनेसे चमार । यह दोनों जानकर नहीं भूला कैयुलिगत्ति अडिगंट कडेयागवेड अरि निजात्मराम रामना। (५२८) शुक्र, शोणित, मज्जा, मांस, भूख, प्यास, व्यसन विषयादिका एक ही प्रकार है, किंतु करनेके कृषि, व्यवसायमें अनेक प्रकार हैं, दिखाई देनेवाले दृश्य और जाननेवाली आत्मामें यही अंतर है। किसी भी कुलका हो, जान लिया कि परतत्वानुभावी, भूला तो मल माया संबंधी। यह भेद जानकर मैं नहीं भूला कैयुलिगत्तिअडिगूट कडेयागवेड अरिनिजात्म राम रामना। ..... (५२६) सांख्य श्वपच था, अगस्त्य मच्छी मार, दुर्वासा मच्चिग (लकड़ी तराशने वाला), दधीचि बढ़ई, कश्यप लुहार, रोमज ठठेरा, कौंडिन्य नाई, यह सब न जानते हुए कुल-कुल कहते हो, यह कुलका छल क्यों भला ? ये सब सप्तऋषि सत्यसे ही मुक्त हुए, यह न जानते हुए असत्य पथपर चलकर । 'ब्राह्मण हम श्रेष्ठ हैं" कहते हुए श्रेष्ठताका बोझ ढोनेवाली बात क्यों कैयुलिगत्तिपडिगूटकज्यागबेड अरि निजात्मरामरामना। टिप्पणी:-वचनकारोंने ऊपरके वचनोंमें 'जातिभेदका विरोध किया है इतना ही नहीं उसको अस्वीकार भी किया है । उनका स्पष्ट कहना है कि जाति गुण कर्मानुसार है, जन्मानुसार नहीं । ऋषि-मुनियोंने भी अपने गुणकर्मसे ही श्रेष्ठता पाई है । वचनकारोंने सज्जनोंको अपनी जातिगत अलगावको भूलकर खान-पान विवाह आदि संबंध बढ़ानेका उपदेश दिया है। (५३०) पास न पानेवाला रसोईसे दूर है । जो रसोईसे दूर है वह घरसे दूर है । जो घरसे दूर है वह मनसे दूर है और गुहेश्वर लिगसे दूर है चन्न बसव । ___(५३१) खानेमें, पहननेमें कहते हैं कर्म भ्रष्ट हुए, धर्म भ्रष्ट हुए। लेनेदेने में क्या कल' देखना है ? क्या वे भक्त कहे जा सकते हैं ? वे क्या मुक्त कहे
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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