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________________ षट्स्थल शास्त्र और वीर-शव संप्रदाय २८९ ' होगा सिद्धरामय्या । टिप्पणी:-गुरुलिंग आदिका लक्षण, महत्त्व और आवश्यकताको देखनेके पश्चात् जंगम के लक्षण बताये गये वचन देखें । (५०३) केश, कषायांवरमें क्या धरा है ? विभूति रुद्राक्षमें क्या धरा है ? साकारमें सन्मत नहीं है । निरहंकारमें निमग्न नहीं है। परमार्थ में परिणामी नहीं है। इसलिए कूडलसंगमदेवा जटिल हो या तापस हो, या मुंडी हो, ज्ञानवान तथा प्राचारवान ही जंगम है । टिप्पणीः-परिणामी समाधानी, शांत । (५०४) दक्षता ही गुरु है, आचार ही शिष्य, ज्ञानही लिंग, समाधान ही तप और समता ही योग है । तैरना न जानते हुए चोटी काटकर मुंडी बननेसे महालिंग कल्लेश्वरदेव हंसता है। ... (५०५) धनसे खिंचनेवाला नहीं, धरनी और दारासे झुकनेवाला नहीं, अशन, व्यसनसे बंधनेवाला नहीं, कूडलचन्नसंगैया भक्तिका पथ देखकरके मानेवाला है वह प्रभुदेव। टिप्पणी:-प्रभुदेव (अल्लम प्रभु) महाजंगम है । जंगम निस्पृहताकी मूर्ति होता है । अब प्रसाद, पादोदक, भस्म, रुद्राक्ष प्रादिका विचार देखें। (५०६) श्रीगुरुने शिवगणों के बीच, मुझे उपदेश देते समय, परमेश्वरके पांच मुख.ही पांच कलश बनाकर, गणोंको साक्षी रख करके, कर-स्थलमें लिंग दिया; और "वह लिंग ही पति; तू ही सती" कहकर मस्तक पर भस्मके पट्टे खींचे, हाथमें कंकरण बांधा। पादोदक प्रसाद देकर सदैव सती-पति भावसे रहनेके लिए कहा श्रीगुरुने। उस उपदेशको महाप्रसाद मानकर स्वीकार किया। इसलिए बिना पतिके दूसरोंको नहीं जानता महालिंगगुरु सिद्धेश्वरप्रभु । (५०७) हस्तान्ज मथनसे दवाकर, भस्मकर, प्रणव पंचाक्षरीके संजीवनीसे चित्तश्रोत्रमें प्रवाहित करनेसे वह खड़ा-सा रहा देख रामनाथा । (५०८) गुरुका हस्त मस्तकपर रखनेसे प्रात्म-शुद्धि होती है, शिवलिंग रखा हुआ स्थान ही अविमुक्ति क्षेत्र होनेसे स्थान शुद्धि होती है। शिवलिंग सन्निधिमात्रसे पवित्रीकृत होकर धन शुद्धि होती है। शिव, मंत्रमय होनेसे मंत्रशुद्धि होती है । लिंग, निर्मल, निरुपम, नित्य, सत्य होनेसे लिंगशुद्धि होती है। इस पंचशुद्धिसे प्राणलिंग संबंध होना ही आगम है, दूसरा आगम नहीं उरिलिंग पेद्दिप्रिय विश्वेश्वरा । (५०६) ..... 'यों नमः शिवाय यह इष्ट ब्रह्मरूपी महालिंग। वह प्रणव पंचाक्षरी ही परमेश्वर है। वह प्रणव पंचाक्षरी ही परम तत्व है । वही प्रणव पंचाक्षर परम योग, वही परंज्योति, वही परमात्म है...''कूडल चन्नसंगमदेवा ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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