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________________ २७८ वचन-साहित्य-परिचय टिप्पणी:- भक्तोंकी वाणी प्रत्यक्ष देवी स्फूर्तिकी वाणी है । उसको मानकर उसके अनुसार चलना चाहिए। इससे परमार्थ हाथ लगेगा। वेदशास्त्र पुराणोंसे शरणोंके वचन अधिक महत्त्वके हैं। (४७१) क्या शास्त्रोंको महान् कहते हो ? वह कर्मोंका सृजन करते हैं वेदोंको महान् कहोगे तो वह प्राणियों का वध करनेकी आज्ञा देता है । श्रुतिको महान् कहोगे तो वह तुझे आगे रखकर खोजती है। वहां कहीं तू न होनेसे त्रिविध दासोहम्को छोड़कर और कुछ नहीं देखना चाहिए कूडलसंगमदेवा । (४७२) आदि पुराण असुरोंकी मौत है, वेद बकरोंकी मोत है, रामपुराण राक्षसोंकी मौत है, भारत पुराण गोत्रोंकी मौत है, यह सब पुराण कर्मोंका प्रारंभ है । तुम्हारे पुराणको दूसरी उपमा नहीं कूडलसंगमदेवा। (४७३) वेद, शास्त्र, आगम पुराणरूपी धान कूटकर उसमेंसे निकला हुआ भूसा भी क्यों कूटें ? यहां वहां भटकनेवाला मन यदि शिव-दर्शन कर सकता है तो सर्वत्र शून्य ही हैं चन्नमल्लिकार्जुना।। टिप्पणी:-वेदशास्त्र पुराण आदि केवल कर्मों को कहते हैं। श्रुति "नेति नेति” कहकर परमात्माकी खोज करती है । शुद्ध चिधन न जानते हुए आत्मज्ञान होनेसे साक्षात्कार नहीं होगा ।। वचनकारोंने उपरोक्त वचनोंमें यह बात कही है । सत्य ज्ञानके विषयमें वचनकारोंके जो विचार हैं वह देखें। (४७४) वेद पढ़नेसे पाठक वनेंगे, ज्ञानी नहीं । शास्त्र पढ़ेंगे तो शास्त्री बनेंगे और पुराण पढ़ेंगे तो पौराणिक बनेंगे किंतु ज्ञानी नहीं। व्रत, नेम, कष्ट, पूजा आदिसे क्या होगा? दिव्यज्ञानका स्थान जानना चाहिए। यह रहस्य जाना तो इसमें मन भर जाता है मारेश्वरा । (४७५) वेद पाठक, शास्त्र संपन्न, पुराण बहुश्रु तिवंत, वादि भेदक, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, देश्य आदिके वाचक, चार्वाकमुखसे संघर्ष करनेवाला मायावादसा है। मूलिका सिद्धि, रस सिद्धि, अश्यीकरण, कार्यसिद्धि, आदि कुटिलताओंका रास्ता अगोचर है। अंग-लिंग-संबंधी शरणका अस्तित्व ऐसा है कि जैसे शुद्ध स्पर्श न करनेवाली लहरें, हवासे स्पर्श न होनेवाले सुमन, हाथसे स्पर्श न होनेवाली गति, स्निग्धताका स्पर्श न होने वाली जिह्वा, पवन, स्पर्श न होने वाले पत्ते हैं, वैसे ही भाव भ्रममें रहकर भी न' रहनेवाले शरणोंका स्थान सदाशिवमूर्तिलिंग मात्र है। टिप्पणी:-वचनकारोंने सच्चे शिवशरण कितने अलिप्त रहते हैं यह बताते हुए, वह कोरा पाठक, पंडित आदि नहीं, वह सिद्धियोंके पीछे पड़ा हुआ पागल भी नहीं आदि कहा है। तथा हठयोगके पीछे कष्ट उठानेवाले लोगोंको भी उन्होंने कहा है तुम व्यर्थके कष्ट मत उठायो । उसमें कुछ नहीं है । तुम शरण
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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