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________________ -२७० वचन - साहित्य - परिचय रख कर खा-खा कहते हैं । इस प्रकारके दंभका विचार न रखकर लिंगको देना चाहिए कहता है हमारा विंगर चौडय । ." टिप्पर्णी: परमात्मा सर्वव्यापी हैं । मनुष्यको परमात्माको संतुष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिए | परमात्मा के निर्जीव प्रतीकोंको नैवेद्य दिखाकर सजीव प्रतीकोंको भूखों मारना धर्म नहीं दंभ है । यह वचनकारोंका स्पष्ट मंतव्य है । वचनकारों का यह भी कहना है कि जो दान देना वह कायकमें से देना चाहिए । ( ४३३ ) सत्व शुद्ध कायकसे प्राप्त श्राय से चित्त चंचल नहीं होना चाहिए । नियमित कायक नियत समय पर मिलना चाहिए । नियमित कायककी श्रायको छोड़कर स्वार्थवश धनको स्पर्श भी किया तो सत्र सेवा व्यर्थ होगी । स्वार्थ: तू अपनी प्राशके पाश में स्वयं जा, मुझे अपने जंगम प्रसादमें ही चंदेश्वरलिंग प्राण हैं। (४३४) कुलस्वामी तेरे बिना चलाए मैं एक कदम भी नहीं चल सकता । मेरे अपने पैर हैं ही नहीं । तेरे और मेरे कदम एक हो जानेकी बात से दुनिया के लोग क्या जानें रामनाथा ? (४३५) तुमसे मैं हुप्रा, मुझे देह इंद्रिय मन प्राण आदि मिले। इन देह, मन, इंद्रिय, प्राणादिका कर्त्ता तू ही है । यह "मैं" वीचका भ्रम मात्र है । तुम्हारा विनोद तू ही जानता है देवराज सोड्डला । टिप्पणी :- यह सर्वापरण किए हुए साधककी भावना है । वह भगवत्प्रेरणा से इस लीलामय विश्व में विचरण करता है तथा परमात्मानंदका भागी होता है ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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