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________________ साधनामार्ग-कर्मयोग २४६ हो, देते समय कभी मैंने उसका कुछ भान रखकर दिया हो, देते समय बदलेमें अपनी रुचिके अनुसार कुछ चाहा हो, तो वह शिव-द्रोह होगा मेरे स्वामी ! करते समय, देते समय, यदि मैं शुद्ध न रहा होऊं तो तुम मेरी नाक काट लो कूडलसंगमदेवा। (३४०) करनेवाला भक्त भी तू है और करा लेनेवाला भगवान भी तू है ऐसा प्रतीत होता है, इसलिए अखंडेश्वरा तेरे फल पदादिकी ओर ताका भी नहीं, और तूने प्रसन्न होकर दिया भी नहीं ! (३४१) प्रपंचमें रहकर उसमें निर्लेप रहती हूँ, आकार पकड़कर निराकार होकर चलती हूँ, बहिरंगसे व्यवहाररत रहकर अंतरंगमें विस्मृत रहती हूँ । जली हुई रस्सीके बटकी भांति रहती हूँ मेरे देव चन्नमल्लिकार्जुना! दसमें ग्यारह होकर पानीमें हूवे कलमसी रहती हूँ ! टिप्पणी:-भोजन करके उपवासी व्यवहाररत रहकर ब्रह्मचारी कर्म करके प्रकर्मी रहने की स्थितिका वर्णन है यह ! ऐसा कर्म निवृत्त कर्म कहलाता है 'जिसमें मुक्ति निहित ही है। (३४२) इस पर, इसके लिए एक, उसके लिये एक ऐसे कहनेवालोंका यह और ही प्रकार है । जैसे जीभ घीसे निर्लेप रहती है, हवा धूलसे निर्लेप रहती है, दृष्टि अंजनसे निर्लेप रहती है, वैसे सिम्मलगिय चन्नराम सब कुछ करके भी न करनेवाले-का-सा रहता है। विवेचन-निष्काम कर्मयोगी अपनी सभी शक्तियोंसे समाजकी धारणा तथा लोकहितार्थ निरपेक्ष भावसे सतत कर्मरत रहते हैं। वे ऐसे कर्म में डूबे रहनेपर भी सदैव अन्तःमुक्त रहते हैं । बहिरगसे कर्मयुक्त और अन्तरंगमें परमात्मयुक्त !
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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