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________________ वचन-साहित्य-परिचय . टिप्पणीः-जीविकोपार्जनके लिए किये जानेवाले शिवार्पित कर्मकों कायक कहते हैं । यह वचनकारोंका. अपना पारिभाषिक शब्द है। उन्होंने कायकको शिव पूजा माना है और कायकसे मिलनेवाले फल अर्थात् पारिश्रमिकको प्रसाद । . . (३२२) व्रत भंग सहन कर सकते हैं किन्तु कायतमें खंड पड़ना असह्य है कर्म हर कालेश्वरा। . ' (३२३) कायकसे ही गुरुकी भी जीवन मुक्ति होती हैकायकसे ही लिंगको शिला कुल टूटता है, कायकसे ही जंगमका वेश पाश टूटता है यह चन्नबसवण्ण प्रिय चन्देश्वर लिंगका ज्ञान है। (३२४) अपना नियमित कायक छोड़कर, समय पर भवत लोगोंके घर जाकर भिक्षा माँग खाना कितना कष्टकर है ? यह 'गुरण अमलेश्वर लिंगसे दूर ले जानेवाला है। . टिप्पणीः-वचनकारोंका कहना है कि साधकका कार्यक समाजहितका कार्य है। ऐसे किसी कार्यसे, समाज, साधकके भोजन वासनका दायित्व अपने पर लेता है। कायक छोड़ करके भिक्षा मांगना अनुचित है । ऐसा कायक कैसे करना चाहिए? (३२५) सत्य शुद्ध कायकमें चित्त तल्लीन होना चाहिए। चित्तका विक्षोभ नहीं होना चाहिए । नित्यके कायकमेंसे नियमित प्रसाद मिलना चाहिए। नित्यका नियमित प्रसाद छोड़कर धनके मोहमें उसको स्पर्श किया तो जीवनं भरकी सेवा-साधना समाप्त समझनी चाहिए । तेरी सेवा मेरे लिए तेरा प्रसाद और प्रसन्नता है तथा चन्देश्वर लिंगका प्राण है। " (३२६) जिसका मन शुद्ध नहीं है उसके लिए धनंका अभाव है, चित्त शुद्ध होकर कायक करनेवालेको जहां देखो वहाँ लक्ष्मी आगे पाकर गले लगाएगी मारप्रिय अमलेवश्र लिंगका सेवक होनेके नाते। ..... ... (३२७) घेरकर, सताकर, उलझाकर, लजाकर जिनको देखा उनसे जहाँ तहाँसे, माँग मूंगकर, जंगमके लिए, लिंगके लिए किया गया संकटपूर्ण कर्म न लिंग पूजा, न लिंग सेवा, न लिंग नैवेद्य कहलाएगा। अपना शरीर गलाकर, रगड़कर, मन मारकर किया गया निःसंशय प्रखंड कर्म ही शिवलिंगका दासोह कर्म है। शुद्ध कायकसे लाए गए सूखे पत्ते भी लिंगार्पित हैं किन्तु दुराशा से लाया गया छप्पन भोग भी उसको अनर्पित है । इसलिए सत्य शुद्ध कायकका नित्या हव्य ही चन्देश्वर लिगको अपित है और कुछ नहीं। : विवेचन-साधकके लिए शुद्ध कायक अत्यन्त महत्त्वका है। उसे.कभी नहीं छोड़ना चाहिए । गुरुजन, भक्त तथा संन्यासी कोई भी कायकसे मुक्त नहीं हो सकते । भिक्षा माँगकर किया हुअा कर्म न पूजा है, न दान है, न अर्पण है। वचनकारोंका यह स्वानुभव है कि निष्ठासे कायक करनेवालेको किसी प्रकारका
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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