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________________ २३८ वचन-साहित्य-परिचय . हैं। अरे वंचक शिवजी ! हम निर्वचक हैं । हम तुमसे क्या मांगते हैं ?. तुम्हारा दिया हुआ हम कुछ नहीं लेते, बिना कुछ दिए ही जा कपिल सिद्ध मल्लिकार्जुन । टिप्पणीः-उपरोक्त वचनमें भक्ति की निष्कामना दिखाई है। वचनकारोंने 'निरपेक्ष भक्ति ही श्रेष्ठ मानी है । (२८३) गगन ही गुंडी है, आकाश ही पूजा जल, चन्द्र-सूर्य दो सुमन, ब्रह्म धूप और विष्णु दीप, रुद्र नैवेद्यका अन्न है देख गुहेश्वरा यही लिंग की पूजा है। टिप्पणी:-गुडी=विशेष प्रकारका पूजा पात्र । .. . विवेचन-परमात्माके प्रेममें अपने आपको भूलना ही भक्तिका रहस्य है । वैसी भक्ति स्थिर होनी चाहिये । दृढ़ भक्तिको निष्ठा कहते हैं । प्रभु-प्रेमका अर्थ अपना सर्वस्व देकर परमात्माको पानेका है । यदि हम भगवानसे प्रेम करेंगे तो वह भी हमसे प्रेम करने लगेगा। वह प्रेम करनेके पहले भक्तकी परीक्षा लेगा। भक्तकी अनन्यता और दृढ़ता देखेगा। एक-पत्नी-व्रतस्थ पुरुषकी भांति भक्तकी आंखें भगवान पर ही स्थिर होनी चाहिएँ । निश्चल भावसे क्षण भर भी परमात्माका स्मरण करें तो वह फल-प्रद है । किन्तु भक्त निरपेक्ष होता है। वह फलकी अपेक्षा नहीं करता। वह तो केवल प्रेम करना जानता है। उसके उपलक्षमें क्या मिलता है इसका विचार भी उसको नहीं छूता। क्योंकि वह निरपेक्ष है, भक्ति करना भक्तका सहज स्वभाव है। वह अत्यन्त विश्वाससे विश्वव्यापी परमात्मा की भक्ति करता है । इस प्रेममें अपनेको भूल जाता है और परमात्माकी प्रत्यक्ष प्रतीति होती है । इसको साक्षात्कार कहा है । साक्षात्कार से भक्त मुक्त होकर कृतकृत्य होता है। वचन-(२८४) आगम पुरुषो तुम्हारा पागम माया होगया रे ! ओ विद्या पुरुषो! तुम्हारी विद्या अविद्या हो गई । श्रो वेद पुरुषो! जहाँ तुम्हारा वेद राह भूला वहां तुम भी "वेद ही भगवान" कह कर नष्ट होगये । अरे शास्त्रज्ञो ! जहाँ तुम्हारा शास्त्र पापके महा-प्रवाहमें प्रवाहित हुआ वहाँ "भक्त दैहिक देव" है यह न जानकर डूब गए तुम ! प्रथम 'यत्र शिव तत्र महेश्वर' कहा गया था। तेरी शरण आया हुआ भक्त "नित्य सत्य सन्निहित है" टिप्पणी:-वचनकारों का कहना है परमात्माको ग्रन्थमें नहीं किन्तु प्रत्यक्ष परम भक्तोंमें देखना चाहिए। . . . . . . . (२८५) भक्तकाय ही शिव-काय है । शिव-काय ही भक्तकाय है । शिव और भक्त अलग नहीं । वह एक ही हैं रे ! क्योंकि "भक्त दैहिक देव" "शिव न्देहीभक्त" यह श्रुति वचन है। भक्त और भगवान एक है। एक जीव एक
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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