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________________ प्रज्ञान २१३ (१७६) संसाररूपी महारोग सवको त्रस्त कर मानो निर्जीव करके छोड़ता है, आगे दिखाई देनेवाले सत्पथ पर कदम बढ़ानेकी शक्ति ही न रखकर अधम . बनाकर छोड़ता है । शिवजी ! मैं तुझसे विनय करता हूं, तू ही श्री गुरु-रूपी वैद्य बन, कृपा-प्रसाद रूपी औषधी दे, पंचाक्षरीका पथ्य बताकर संसार रूपी व्याधिसे बचा रे मेरे स्वामी ! यही तुम्हारा धर्म है निजगुरु स्वतंत्र सिद्धलिगेश्वरा। टिप्पणी-मायाका विस्तार उतना ही है जितना विश्वका है। उसमें विश्वके सभी प्राणी फंसते हैं । फंसकर निःसत्व बनते हैं। केवल भगवानकी कृपासे ही मनुष्यका उद्धार संभव है ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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