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________________ २०४ वचन-साहित्य-परिचय : उस महाशून्यके प्रकाशमें अपने आपको देखलो इम्मडिप्रिय निष्कलंकमल्लिकार्जुनमें। - (१४२) कायानुभावी लोग शरीरमें मुक्त हैं, जीवानुभावी जीवनमें मुक्त हैं, पवनानुभावी पवनमें मुक्त हैं, इन सवको लिंगानुभावियोंके समान कैसे कहूं ? शिवलिंग-प्रकाशमें जो सदैव डूबे हुए हैं वही हमारे शिवशरण हैं कूडलसंगमदेव। विवेचन-मुक्ति ही मनुष्यका आत्यंतिक साध्य है । मुक्त होनेके अनंतर मुक्तिके भक्तोंको स्वर्गादिकी कल्पना नहीं रहती। मुक्त पुरुष सतत ब्रह्मानंदमें लीन रहता है । मनुष्यमें अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश, और आनंदमयकोश ऐसे पंचकोश रहते हैं। जिसने अन्नमयकोशका अतिक्रमण किया उसको कायानुभावी, जिसने प्राणमयकोशका अतिक्रमण किया उसको जीवानुभावी अर्थात् प्राणानुभावी आदि कहा है। किंतु वह पूर्णज्ञानी नहीं है । लिंगानुभावी पूर्णज्ञानी होता है, क्योंकि वह सतत. सर्वत्र परमात्माका अनुभव करता है। और मनुष्यको सतत सर्वत्र परमात्म तत्वका अनुभव करनेकेलिये अपने अंग गुणोंका अर्थात् शरीर गुणोंका संपूर्ण रूपसे अतिक्रमण करके लिंग गुणोंका अर्थात् आत्म गुणोंका विकास करना आवश्यक है। वचन-(१४३) आरुणोदयके साथ अंधकार दूर होकर जैसे सर्वत्र प्रकाश फैलता है वैसे ही सम्यक् ज्ञानोदय होते ही अज्ञान वीज और मल संस्कार धुल जाते हैं । "मैं ही परमात्मा हैं" का वोध हो जाता है । वह जाननेका भान भी नष्टः होकर परशिवसे जो समभावी होता है वही मुक्त है रे बाबा! निजगुरु-स्वतन्त्रसिलिगेश्वरा। . (१४४) शरीरमें रहकर शरीरको जीता, मनमें रहकर मनको जीता, विषयोंमें रहकर विषयोंको जीता, असंग छोड़कर इस संसारको जीताः उसनेः। कूडलसंगमदेवके हृदयमें प्रवेशकर परम पद प्राप्त महादेवी अक्कके चरणकमलोंमें शत-शत प्रणाम करता हूं! . . (१४५) योग शिवयोग कहते हैं, पर योगका रहस्य कौन जानता है ? हदय कमलमें वास करनेवालेका प्रकाश देखने के पहले क्या योग कहा जाता है । बावन अक्षर देख-देखकर छः अन्तस्थके. ऊपर मणिमाड रह सका तो वह योग है। सोहम् नामके स्थानमें सूक्ष्म ध्वनि मिटकर मन नष्ट हो जानेके कारण गुहेश्वर लिंगमें तू स्वतन्त्र और निर्भय है यह दीख पड़ेगा सिद्ध रामयाः। . टिप्पणी :-षडचक्र और बावन' वर्णो का अतिक्रमण करके सहस्रदल कमल में .. स्थित होनेके अनंतर साधकने सच्चा योग साध्य किया ऐसा कह सकते हैं ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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