SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साक्षात्कारोकी स्थिति २०१ टिप्पणी :- - इस वचन में पर्यायसे शरण और परमात्मामें ऐकात्म्य दिखाया है | ( १२१) लिंगपूजाका फल ही क्या यदि समरति, समकला, और समप्रीति नहीं है ? लिंगपूजाका क्या फल है कूडलसंगमदेव नदीमें नदी न मिली तब तक ? (१२२) समरस में जो स्नेह है वह मत्स्य, कूर्म, विहंगकी भांति स्नेहके दर्शनमें ही तृप्त है, स्नेहके स्मरण में ही तृप्त है । प्रोलोंकी मूर्ति पानीमें डूबनेका सा हो गया है हमारा गुहेश्वर लिंगैक्य । ( १२३ ) ध्यानसूतक, मौनसूतक, जपसूनक, अनुष्ठानसूतक, गुहेश्वरको जानने के बाद सब सूतक यथा स्वेच्छा से मिट गये थे । ( १२४) स्मर स्मर कहने से क्या स्मरा जाय रे ! मेरा शरीर ही कैलास बन गया है, तन ही लिंग, मन ही शैया बन जानेके ग्रनंतर स्मरण करने के लिये कहाँका भगवान और उसे देखनेके लिये कहांका भक्त, गुहेश्वर लिंगमय हो गया है सब (१२५) कपूरका पर्वत जलनेके बाद भी कहीं राख रही है ? हिम शिवालय पर कभी धूपका कलश रखा जाता है ? जलते हुए कोयलोंके पर्वत पर छोड़े गये लाक्षाके (लाख) तीर फिरसे चुने जा सकते हैं ? गुहेश्वलिंग जानने के बाद भी उसको ढूंढनेका रहता है क्या रे सिद्धरामय्या ? टिप्पणी :- -वचनकारोंका स्पष्ट मत है कि साक्षात्कारी अथवा अनुभावी जब सहज समाधिमें लीन रहने लगता है तब उसको किसी प्रकारकी साधनाकी आवश्यकता नहीं होती । क्यों कि तब वह परमात्मासे सतत समरस स्थिति में रहता है । उस स्थिति में ध्यान, स्मरण आदि भी सूतक ( अमंगल ) सा लगता है । T विवेचन -- पूर्ण साक्षात्कारी भी परमात्माकी भांति द्वंद्वातीत, निरपेक्ष और निर्लिप्त रहता है । सतत और सर्वत्र उसीको देखता है, उसीको सूचता है, उसीका अनुभव करता है । उसीमें स्थित रहता है । वह भला, बुरा, पाप, पुण्य, धर्म, धर्म, कुछ भी नहीं कर सकता । जो कुछ कार्य उससे होता है वह सबं परात्पर परमात्मा के संकल्पानुसार होता है । इसलिये उसका काम स्वाभाविक, सहज सुंदर तथा लोकहित के अनुकूल ही होता है । . वचन-- (१२६) जब मनमें घन वेद्य हुआ तब कहाँका पाप और कहाँका पुण्य ? कहांका सुख और कहांका दुःख ? न काल, न कर्म, न जननं न मरण गुहेश्वरा यह तेरे शरणकी महान महिमाका परिणाम है । ( १२७ ) जो कर्माधीन होता है वह कर्मी और जो लिंगाधीन होता है
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy