SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ वचन-साहित्य-परिचय (३४) आकाश में एक नया तोता पैदा हुआ और उसने स्वयं अपने ज्ञानसे एक नया घर बना लिया था। एक तोतेके पच्चीस तोते बने । स्वयं ब्रह्म उसका पिंजडा वना, विष्णु उस तोतेका आहार वना, शंकर उस तोतेके संहारका साधन वना, आगे इन तीनोंसे उत्पन्न हुए बच्चोंको वह निगल गया । चमत्कारिक रूपसे नाम नष्ट हो गया देख गुहेश्वर । टिप्पणी:-यह अल्लमप्रभुका वचन है । अल्लमप्रभुके अनेक ऐसे गूढ़वचन हैं । कान्नड़में उन्हें "मुंडिगे" कहते हैं । यह भी मुंडिगे है। यह एक पहेली-सी है। तोतेका अर्थ चित्-शक्ति किया जाता है । वही चित्-शक्ति पुरुप प्रकृति आदि पच्चीस तत्त्वोंमें परिणित हुई। विश्वका निर्माण करनेवाला ब्रह्म है इसलिये वह पिजड़ा बना, संरक्षण करना विष्णुका काम है सो वह आहार बना, रुद्र का कार्य संहार करना है इसलिये वह संहारका साधन बना। यह सारा संसार इन तीनोंका वच्चा है, किंतु ज्ञानी यह रहस्य जानता है कि यह सब उस वित्का खेल है । अर्थात् ज्ञानीके लिये यह नाम-रूप मिटकर केवल चैतन्य ही एक मात्र प्रतीक रह जाता है यह इसका सारांश है । (३५) लोकादिलोक ऐसा कुछ नहीं है ऐसा एक स्मरण हुअा था, शून्यने अपनी श्रेष्ठताके स्मरणसे ही स्वयं उत्पन्न होकर चित् कहला लिया था। उस चितने ही सत्, चित्, आनंद, नित्य, परिपूर्ण ऐसे पांच अंगोंको स्वीकार करके अखंड शिव-तत्वका रूप धारण किया । वह अखंड शिव-तत्त्व अपने आप स्वयं अपनी शक्ति के प्रादुर्भावसे एकका दो हो गया। उस पर शिवकी चित् शक्ति स्वयं दो प्रकारकी थी।.......... शक्ति ही प्रवृत्ति कहलायी और भक्ति निवृत्ति ।......'वह शक्ति छः प्रकारकी हुई. "चित् शक्ति ... आदिशक्ति... परागक्ति...''नानाक्ति...'इच्छा शक्ति.... "क्रियाशक्ति....उन क्रियादशक्तिकी निवृत्ति कलाले माया शक्तिका जन्म हुया। उस मायाशक्तिसे ही समस्त संसारको उत्पत्ति हुई....... 'महालिंगगुरु सिद्धेश्वर प्रभु । टिप्पणी:-यह वचन बड़ा ही लंबा था। इस वचनमेंसे संदर्भ विषयक भाग ही यहाँ लिया गया है। अन्य भाग छोड़ दिया गया है। शून्यने अपनी घेताको स्मरण करके चित् कहला लिया इस लिये स्मरण भी उसका अंश बन गया। मूल वचन में "मरण" के लिये नेनह शब्द पाया है। नेनहु=स्मरण और मर-विस्मरण यह वचनकारोंके पारिभाषिक शब्द हैं। "शून्यने अपनी श्रेष्ठताके स्मरण" इन अमें मूल वचन में शब्द प्राये है ननहिल्लद दनदन्तु नेनेद नेनहे" । गदगः किये गये इसके अनुवादका प्रबं अत्यंत दुबाव था। तब
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy