SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ — तुलनात्मक अध्ययन १४७ भी इसी भावसे साधनाकी थी। महाराष्ट्र में मंगलवेडेकी एक वेश्याकी पुत्री कान्हो पात्राका जीवन भी अक्क महादेवीके जीवनकी तरह अत्यंत उज्ज्वल, मनोरम और हृदयद्रावक है। वह महाराष्ट्र के संत-मंडलकी एक सम्मानित साध्वी है। उसने विषय-सुखका श्रात्पंतिक निराकरण किया है। बीदरके नवावने उसके सौंदर्यकी कीर्ति सुनी । उसको निमंत्रण दिया। उसके संगकी इच्छाकी । कान्होपात्राने इन्कार कर दिया। नवाबने उसको जबरदस्ती ले जानेका प्रयास वि.या। किंतु वह भक्त थी। उसने परमात्माको अपना पति माना था । वह पंढरपुर के लिए रवाना हो गयी । बीदरके सैनिकोंके हाथ पड़नेके पहले पंढरपुरमें पहुँच कर पंढरपुरके विठोवाके सम्मुख प्राण त्याग किया !! 'अंदल' नामकी एक तामिल साध्वीने भी जीवन भर यह साधना की है। महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि संत-श्रेष्ठोंने तथा कन्नड़के कुछ वैष्णव संतोंने भी अपने "सुलादि" नामके भजनोंमें कहीं-कहीं इस भावकी झलक दिखाई है । किंतु दक्षिणके संत-साहित्यमें यह प्रकार बहुत कम है। भक्ति-मार्गमें नामका अत्यंत महत्व है । भक्ति-मार्गमें नामका वही महत्व है जो वैदिक उपासनामें "ओ" प्रणवका तथा गायत्री मंत्र का है । नाम सबके लिए समान है। वह सबकी संपत्ति है। सब भाषाओंके संतोंने नामका माहात्म्य गाया है । वचनकारोंने नाममहिमा गायी है। उनके संप्रदायमें "ओं नमः शिवाय' यह नाम-मंत्र है । भारतीय तथा विश्वके अन्य संतोंने नामके विषय में जो कुछ कहा है उसकी एक-एक पंक्ति भी दें तो वह एक स्वतंत्र और बृहद् ग्रंथ हो जाएगा। वचनकारोंने कहा है कि सर्वापरणयुक्त निष्काम भक्ति ही मुक्तिका मुख्य साधन है। इस विषयमें दूसरे देश-काल और भाषाके संतोंका क्या विचार है इसका विचार करें। सर्पिणकी भावनामें ज्ञान, ध्यान, कर्मका भी समावेश होता है । किंतु सर्वार्पणके बाद भी अपने-अपने स्वभाव-धर्मके अनुसार साधक कर्म-प्रधान, ज्ञान-प्रधान अथवा ध्यान-प्रधान हो सकता है। उनका कहना है कि परमात्मा सर्वान्तर्यामी है । उसके निरतिशय प्रेमसे चित्त-सर्वस्व भर जाना चाहिए। उसी प्रेमसे अंतःकरणमें सर्वार्पण भाव स्थिर कर लेना चाहिए। उसके बाद अपने में जो सबसे विकसित शक्ति है उससे, चाहे वह कर्म-शक्ति हो, भाव-शक्ति हो, ध्यान-शक्ति हो या ज्ञान-शक्ति, साक्षात्कारकी साधना करनी चाहिए। साधकमें जो शक्ति प्रधान रूपसे बलवत्तर है उसके अनुसार साधकका वह कर्मयोग, ध्यानयोग अथवा ज्ञानयोग होगा। साधकको अपने साध्यपर लक्ष्य केंद्रित करना चाहिए। मार्ग कोई भी हो, उसका अंतिम साध्य साक्षात्कार है। सत्यका ज्ञान होना चाहिए । ज्ञान ही मोक्ष है । कन्नड़ संतोंने सत्य ज्ञानको अत्यंत महत्व दिया है। उनका स्पष्ट कहना है कि विना ज्ञानके मुक्ति असंभव
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy