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________________ १४२ . वचन-साहित्य-परिचय स्मरण किया है। इससे अन्य बातोंको समझनेमें सहायता मिले । ___ मनुष्य मात्रमें यह अमृतानुभव प्राप्त करनेकी इच्छा होती है। जब यह इच्छा तीव्र होती जाती है अन्य छोटी-मोटी इच्छाएं क्षय होती जाती हैं । अन्य छोटी-मोटी इच्छाएं क्षय होनेसे वह इच्छा तीवसे तीव्रतर और तीव्रतम हो जाती है। और वह व्याकुलतामें वदल जाती है । तब उसे आर्तभाव कहते हैं । जब अपने ध्येयका विछोह असह्य हो जाता है। उसको विरहावस्था कहते हैं । वह साक्षात्कारकी प्रसव पीड़ा ही समझनी चाहिए । वचनकारोंके वचनों में से वह जगह-जगह फूट पड़ी है। कई जगह उनकी आत्मा आर्त होकर चीख उठी है.-.-"सांपके फनकी छायामें बैठे हुए मेंढककी-सी हुई है रे मेरी दशा।" "इस संसारका यह बवंडर कब रुकेगा रे !" "तुमसे मिलकर कभी अलग न होनेका-सा रहूंगा क्या मेरे स्वामी !" वैसे ही विरहावस्थाके भी अनंत वचन पाये जाते हैं, जैसे-"मनका पलंग बनाकर चित्तसे अलंकृत करूंगा मेरे स्वामी! श्रा !!" "हल्दीका स्नान कर स्वर्णालंकार पहनकर चन्न मल्लिकार्जुनकी राह देखते बैठी थी।" अनेक ऐसे प्रात और विरहभावके वचन मिलते हैं। वैसे ही "विपयरहित कर भरपेट भक्ति रस पिलाकर रक्षा करो।" "संसारकी आधिव्याधि दूरकर मेरे परम पिता।" "विषय-विकल हुआ । बुद्धि भ्रष्ट हुई। गतिहीन होकर तुम्हारी शरण पाया हूं मेरी रक्षा कर।" अादि प्रार्थनात्मक वचन भी कम नहीं है । पश्चिमके साधकों के भी ऐसे वचन मिलते हैं । जैसे सेंट अागस्टाइन के कन्फेशन्स, वायबिल में आये हुए सेंटपालके वचन, वायविलके अोल्ड टेस्टामेंटकी साम्सकी प्रार्थना । उसी प्रकार मुस्लिम संतोंके भी ऐसे वचन हैं। हाफिजने कहा है, 'मैं तुमसे बिछुड़नेका वह दिन कभी भूल सकता हूं ? उस दिनसे किसीने मेरी मुस्कराहट देखी है ? मेरी यह यातना कौन देखता है ?" उसीने एक जगह-"अरी ! मेरे मनकी मलिनता धोकर प्रकाशनेवाली ज्योति ! आ ! मेरे मन-मंदिरको प्रकाशमानकर ! तुझे छोड़कर और कहां जाऊं उस प्रकाशको ढंढने ? वहां पंडितोंकी सभामें न प्रकाश है न सत्य !"-कहा है। वह इस विरह व्याकुलतामें भी एक प्रकारका आनंद अनुभव करता है, "इस तेरे विरह-विह्वल अंतःकरणको और किसी सुखकी अपेक्षा नहीं है । कम-से-कम आरि तक यह व्याकुलता तो दे !" महाराष्ट्र के संत-शिरोमरिण तुकारामंकी व्याकुलता. भी बड़ी तीन थी। वह कहते हैं, "बिना तेरे दर्शनके मुझे और किसीकी भाशा नहीं है। कम-से-कम सपने में तो अपना दर्शन दे ! मैं तो तेरे चरणोंके दर्शनके लिये तड़प रहा हूं। मैं तुझे देखना चाहता हूं । तुझसे बोलना चाहता हूं। मैं तेरे चरण छूना चाहता हूं। मेरे हृदयमें जलनेवाली यह आग विना तेरे दर्शनके वुझना असंभव है। क्या मैं तुझे देख सकूँगा ?" वैसे ही .
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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