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________________ १४० वचन-साहित्य-परिचय वर्णन किया है । वह वर्णन अद्भुत है । प्रतिभापूर्ण है । अत्यंत स्फूर्त है। वैसे ही हिंदी संतोंका अनुभव भी कम अद्भुत नहीं है। वस्तुतः हिंदी पाठक इससे अनभिज्ञ नहीं है । हिंदी-साहित्यमें साक्षात्कारके अनुभवका अत्यंत सुंदर वर्णन मिलता है । एक जगह कबीर कहते हैं, "अमृतरस चूनेसे जहां ताल भरा . है, वहां गगनभेदी शब्द उठता है। सरिता उमड़कर सिंधुको सोख रही है। उसका वर्णन करते कुछ नहीं बनता। न वहां चांद है न सूर्य और न नक्षत्र । और न रात है न प्रभात । सितार, बांसुरी आदि वाजे बजते हैं । मधुरवाणीसे राम-राम ध्वनि उठती है। सर्वत्र करोड़ों दीपक झिलमिल-झिलमिल झलकते हैं । बादलके बिना ही पानी वरस रहा है । एक साथ दसों अवतार विराजते हैं । अपने आप मुखमेंसे स्तुति सुमन झड़ते हैं। कबीर कहते हैं, यह रहस्यकी वात है । कोई विरला ही वह जानता है ।" वैसे ही और एक भजनमें वह कहते हैं, 'इस गगन गुफामें अजर झरै !" "जहां बिना वाजेके ही झनकार उठती है ऐसी गगन गुफासे अजर रस झरता है। जब ध्यान लगाते हैं तभी समझमें आता है । वहां बिना तालके कमल खिलता है और उस पर चढ़कर हंस केलि करता है। वहां विना चांदके चांदनी छिटकती है और उस चांदनीमें हंस खेलते हैं। कुंजी लगने पर जब दसवां द्वार खुलता है तब वहां जो अलख पुरुप है उसका ध्यान लगता है । कराल काल उसके पास नहीं जाता। काम, क्रोध, मद, मोह आदि जल जाते हैं । युग-युगकी प्यास बुझ जाती है। कर्म, भ्रम, आदि, व्याधि सब टल जाती हैं । कबीर कहते हैं, अरे साधो ! जीव अमर हो जाता है और कभी मृत्युके फंदेमें नहीं पड़ता।" वैसे ही चरणदासजी कहते हैं, "जबसे घोर अनहद नाद सुना इंद्रियां थकित हो गयी हैं। मन गलित हो गया है। सभी आशायें नष्ट हो गयी हैं। जब अमल में सूरत मिल गयी तब नेत्र घूमने लगे। काया शिथिल हो गयी। रोम-रोमसे उत्पन्न ग्रानंदने आलस्यको मिटा दिया। जब शब्द विलीन हो गये तब अंतरका कण-करण भीग गया । कर्म और भ्रमके बंधन टूट गये । द्वैतरूपी विपत्ति नष्ट हो गयी। अपनेको भूलकर जगतको भी भूल गया। फिर पंचतत्वका समुदाय कहाँ रह गया ? लोकके भोगकी कोई स्मृति ही नहीं रही। गुणी लोग ज्ञानको भूल गये । शुकदेव मुनि कहते हैं, ऐ चरणदास ! वहीं लीन हो जा। भाग्यसे ऐसा ध्यान पाओ कि शिखरकी नोक पर चढ़ जा।" चरणदास के ऐसे कई भजन मिलते हैं जो साक्षात्कारके देवी उन्मादमें गाये गये हैं । उनके एक भजन "देस दिवानारे लोगो जाय सो माता होय !" में साक्षात्कारका अद्भुत शब्द चित्र है । हिंदीके निर्गुण भक्ति धाराके अलावा सगुण भक्ति धारामें भी साक्षात्कारका वर्णन मिलता है। श्रीतुलसी
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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