SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ वचन-साहित्य-परिचय उसका साक्षात्कार करें।" अदृश्य और नगोचर सत्यके विषय में साक्षात्कार ही प्रत्यक्ष प्रमाण है जैसे दृश्य वस्तुओंके बारेमें प्रत्यक्ष देखना ही प्रत्यक्ष प्रमागा है। "प्रत्यक्ष प्रमाण" हजार प्राप्त वाक्योंसे श्रेष्ठ है । जैसे "पाग जलाती है," यह प्रत्यक्ष प्रमाण है ।लाल तक अथवा श्रुति-स्मृतियोंके श्राप्त वाक्य इसे मुठला नहीं सकते वैसे ही नंतीका साक्षारकारका अनुभव प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह श्रुति यान्योंसे भी नहीं सुटला सकते। और साक्षात्कार कोई स्वप्न का-सा वृत्ति रूप नहीं होता। क्षणिक नहीं होता। वह जीवनको बद्ध-मूल स्थितिरूप बन जाता है । तन, मन, प्राण, नाव आदिमें व्याप्त हो जाता है । वचनकारोंने कहा है, दना प्रकारका साक्षात्कार प्रात्यंतिक सत्यकी कसोटी है । उनका कहना है कि साक्षालारसे साधक निःसंदेह होता है। उसका साधना-पय निश्चित होता है । उसका वन्य-गाय जागता है। नामा. त्याररो जीवन कृतार्थ हो जाता है । वचनागृत छठवें और सातवें अध्याय में इस विपयके वचन हैं। साक्षात्कारमें हातीत निर्गुण परमहाका साक्षात्कार सर्व श्रेष्ठ है। वही अंतिम पद है । कोई भी उसका अतिक्रमण नहीं कर पाता । वह साक्षाकार निर्विकल्प समाधिमें होता है। ऐसे साक्षात्कारमा अनुभव अवर्णनीय है। अनिर्वचनीय है। इसके अलावा भी किसीको जोहपका, किसीको अनहद ध्वनिरूपका, किसीको सूक्ष्म-स्पर्श-रूपका साक्षाकार हो सकता है । साधना-पथमें साक्षात्कार सर्वोच्च स्थिति है । भक्ति, मान, सलंग, शास्त्रार्थ प्रादिसे यह अनुभव श्रेष्ठ और परेका है। स्वानुभवका गुरा पणेनातीत सुख है। उससे होनेवाला अनुभव अनुपमेय है । वह एक दिव्य दर्शन है। साक्षात्कारीको एक प्रकारका दिव्य ऐक्यानुभव होता है। वह 'समरस मुख' में डूबा रहता है। वह सुख-दुख, पाप-पुण्य, कर्म-कर्म प्रादि हंटोंसे परे हो जाता है। वह सब बंधनोंसे मुक्त रहता है। अलिप्त रहता है। यह वचनकारोंका अनुभव है । उपनिषद्कारोंका अनुभव इससे भिन्न नहीं है । ईशावास्य उपनिषद्का ऋपि कहता है, "तुम्हारा कल्याण तम-तेजो-रूप में देखता हूं । वहां दिखाई देनेवाला पुरुष भी मैं ही हूं" (मं. ७) यह साक्षात्कारीको भाषा है। सबसे परे जो पानंद मय कोश है उसका अतिक्रमण होते ही यह भापा प्रारंभ होती है। ऐसे ही तैत्तरीय उपनिषद्का अपि भृगुवल्लीके दसवें अनुवाकमें मस्त होकर गाता है, "मैं ही अन्न हूँ। मैं ही कवि हूँ। मैं ही अमृत कोश हूँ। मैं ही वह स्वर्ण ज्योति हूँ।" साक्षात्कारी सदा प्रात्मरत होता है । प्रात्मकोड़ामें मग्न रहता है। छांदोग्य उपनिपके सातवें अध्यायके पच्चीसवें खंड में उसका वर्णन है, "जैसे घोड़ा अपने बदनकी धूल झाड़ देता है वैसे वह अपना पाप झाड़ देता
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy